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बातें जहरीली (कविता) -कमलेश कंवल


आंखों की झील में मरी,
सपनों की मछलियां।
मायूसी में ढल गया,
कितना सब्र रखता मैं।
मेरा उनका संबंध,
ना वो समझ सके ना मैं।
प्राणों पर बन आती है,
मांझी की गलतियां।
कोई उम्मीद नहीं,
कोई तमन्ना भी नहीं।
चाहा था रहना अकेला,
मगर इतना भीं नहीं।
रेंगती रहती हैं मन की दीवारों पे,
दहशत की छिपकलियां।
हवा अब नम कहां,
हो गई पथरीली ।
मन की जड़ों तक,
उतरी बातें जहरीली।
या तो खींच दो पर्दे या फिर,
कर दो बंद खिड़कियां।

-कमलेश कंवल, उज्जैन

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