क्रांति-सूर्य जननायक पुकारे जाने वाले, टंट्या मामा भील का शहीद दिवस, प्रतिवर्ष 4 दिसंबर को आता है। उनको लेकर अपना मध्यप्रदेश , इस अर्थ में अतिरिक्त रूप से महिमापूर्ण हो जाता है कि, विगत कुछ वर्षों के दौरान, यहां चाहे जिस भी राजनीतिक दल की सत्ता रही हो, उसने समय-समय पर, अपने इन महामना बलिदानी को, अपना स्मृति सम्मान, अपनी संपूर्ण निष्ठा से अर्पित किया है। इसके अंतर्गत, उनके जन्मदिन से लगाकर, बलिदान दिवस तक को, उनसे जुड़ी यादों के एक उत्सव के नाते रचकर, उनके प्रति श्रद्धा-भाव प्रकट किया गया है। इसी स्थिति का एक बेहतर सुपरिणाम, स्वयं आगे चलकर सूचित करता है कि, अब सुविख्यात पातालपानी रेलवे स्टेशन को, टंट्या मामा रेलवे स्टेशन कहा और लिखा जाता है।
टंट्या मामा को, अपना जीवन दांव पर लगाने वाले, एक सच्चे और समर्पित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में आदर प्राप्त है। उन्हें अपने समयकाल के, एक तपस्वी देशभक्त के रूप में भी यादों में लाया जाता है। स्वाधीनता प्राप्त करने के संघर्ष के अलावा, समाजसेवा भी उनके स्वभाव से दूरी नहीं बना सकी थी। उस समय आदिवासी समाज को, सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति दिलाने की कोशिश भी, उनकी मानव सेवा में शामिल रही थी। वे इनके सुख और दुःख में, एक समान मात्रा में हिस्सेदार रहते थे। अपने सुकार्यों को नतीजा देते, वे अंग्रेजों तथा शोषण करने वाले साहूकारों की धनराशि को लूटकर, गरीब आदिवासियों के बीच बांट दिया करते थे। उनकी इस सक्रियता से, तत्समय की अंग्रेज सरकार बेहद परेशान हो चुकी थी।
मनुष्य हित की साधना का पालन करने के कारण, उन्हें अन्य समाजों में भी जनप्रिय स्थान प्राप्त रहा था। उनकी वीरता और साहस को देखकर, उन्हें इंडियन रॉबिनहुड भी बोला गया। 1857 में, देश की आजादी के अति कड़े संघर्ष में, जिन क्रांतिवीरों ने अपने प्राणों को त्यागा था, उनमें टंट्या मामा बहुत महत्त्वपूर्ण रहे हैं। मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से, मालवा और निमाड़, उनकी ख़ास कर्म भूमि रहे। उनके द्वारा संपन्न स्वाधीनता संघर्षों तथा जन हितैषी भूमिकाओं के चलते, उन्हें सिर्फ और सिर्फ आदिवासी समुदाय का ही उद्धारक नहीं माना और समझा गया, बल्कि उनको देश का गौरव कहलाने का भी यश प्राप्त रहा।
मध्यप्रदेश सरकार के अतिरिक्त, उनको जानने तथा पहचानने वाला जन समाज भी, उनको समय-समय पर, विभिन्न प्रकार से स्मृति में लाकर रेखांकित करता रहता है। वे लोक समाज में हमेशा स्मरणीय बने रहें, इस हेतु भी विविध प्रयास किए जाते हैं। इसी सुविचार के तहत, प्रदेश के ही बड़वानी जिले के गांव, निवाली के पास स्थित, काजल माता पहाड़ी पर, उनकी एक विशाल प्रतिमा को स्थापित किया जा चुका है। सम्मान और यादों के स्थायित्व के इसी सिलसिले में, इंदौर के भंवर कुंआ चौराहे का नवीन नामकरण, टंट्या भील चौराहा भी, एक प्रतिष्ठापूर्ण आयोजन को रचते हुए किया जा चुका है।
उनको लेकर, एक उल्लेखनीय बात यह भी सामने आती है कि, प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल के पास, कुर्सी तथा सत्ता की शक्ति रही हो, वह इनको यथासमय अपनी स्मृति में लाते रहते हैं। 4 दिसंबर, 1889 को, वे अंग्रेज़ी सरकार द्वारा कपट पूर्वक गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें फांसी दे दी गई। तब से लेकर आज तक, वे सभी के लिए ही, एक आराध्य ही बने हुए हैं।
-ललित भाटी, इंदौर
0 टिप्पणियाँ