उज्जैन। गांधी जी ने वर्धा योजना में जिस तरह की शिक्षा की कल्पना की थी वह शिक्षा निश्चित ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पूर्ण होती दिखाई दे रही है। 1921 के गोलमेज सम्मेलन में जब यह चर्चा हुई कि भारत की शिक्षा नीति इतनी प्रभावी नहीं है, तब गांधी जी ने ब्रिटिश शिक्षा पद्धति की कमियां बताई। मार्च 1938 में वर्धा में एक ऐसी शिक्षा नीति की कल्पना हुई जिसमें पहली से आठवीं तक विद्यार्थियों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा मिलने का प्रावधान था। विद्यार्थियों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा मिले इस बात पर जोर दिया गया और शिक्षा के साथ विद्यार्थी हस्तकला में भी निपुण बने इस बात कल्पना की गई ,ताकि वह हस्तकला के माध्यम से स्वावलंबी बन सकता है। शिक्षा ऐसी हो जो विद्यार्थियों को स्वावलंबी बनाएं और उन्हें विभिन्न प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करें। शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जो विद्यार्थियों को रचनात्मक बनाएं। एक ऐसी शिक्षा नीति जो लिंगभेद, धर्मभेद से ऊपर उठकर नैतिक शिक्षा और संस्कारों को प्रदान करें । उक्त विचार आंतर भारती, गोवा के राष्ट्रीय अध्यक्ष माननीय श्री पांडुरंग नाडकर्णी ने भारतीय ज्ञानपीठ में आयोजित कर्मयोगी स्व.श्री कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ की प्रेरणा और पद्मभूषण डॉक्टर शिव मंगल सिंह 'सुमन' की स्मृति में आयोजित 21वीं अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला के समापन दिवस पर प्रमुख वक्ता के रूप में व्यक्त किये।
"राष्ट्रीय शिक्षा नीति और गांधीजी की वर्धा योजना" विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री पांडुरंग नाडकर्णी ने कहा कि गांधी जी की कल्पना थी कि शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो कि उसमें परीक्षा का तनाव महसूस ना हो और विद्यार्थियों के स्वाभिमान को बढ़ावा मिले। शिक्षा ऐसी हो जिसे पाने के बाद रोजगार के लिए भरपूर अवसर उपलब्ध हो। नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति से बहुत उम्मीदें हैं जिसमें प्रथम 5 वर्ष बुनियादी स्तर पर बिना पुस्तकों के अध्ययन- अध्यापन की कल्पना की गई है। इस स्तर पर सिर्फ सुनने, बोलने, पढ़ने और फिर अंत में लिखने का अभ्यास होगा, जबकि वर्तमान में विद्यार्थी को सर्वप्रथम लिखने का अभ्यास करवाया जा रहा है, जो की ठीक नहीं है। नवीन शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की कल्पना की जा रही है। विद्यार्थियों को क्रीडा, नृत्य, संगीत से परिचित करवाया जाएगा। अगले स्तर पर खेलने और गणना करने संबंधित शिक्षा प्रदान की जाएगी। यह शिक्षा नीति प्रश्न-उत्तर आधारित है, जो निश्चित रूप से पारंपरिक शिक्षा पद्धति की विशेषता की ओर ले जाती है। गांधी जी की वर्धा योजना में शिक्षा की कई कल्पना आज नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पूर्ण होती दिखाई देती है।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय के कुलपति माननीय प्रोफेसर विजय कुमार सीजी ने कहा कि भारत की गौरवशाली गुरु-शिष्य परंपरा 18वीं शताब्दी तक कायम थी, किंतु विगत 200 वर्षों में जो आक्रमण हुए, उसने इस समृद्ध परंपरा को क्षति पहुंचाई। गांधीजी का मानना था कि शिक्षा ऐसी हो जिससे विद्यार्थी अपने पैरों पर खड़ा रह सके, उसे यह ज्ञान हो कि जीवन कैसे चलाना है ? नालंदा विश्वविद्यालय में सभी प्रकार की विधाओं की शिक्षा दी जाती थी। एक अच्छा वैज्ञानिक, एक अच्छा संगीतज्ञ भी हो सकता है, एक अच्छा डॉक्टर एक अच्छा ज्योतिष भी बन सकता है और एक अच्छा गणितज्ञ साहित्य का रचनाकार भी हो सकता है, किंतु विगत वर्षों में हमारी शिक्षा पद्धति में एक प्रकार से संकायों के स्तर पर ही भेद शुरू हो गये। हमने साइंस, कॉमर्स, आर्ट , मेडिकल आदि संकायों में भेद उत्पन्न कर दिए। जबकि सभी विद्यार्थियों को सभी प्रकार की शिक्षाएं मिलना चाहिए ।नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह भेद अब समाप्त हो रहे हैं। हमारे विज्ञान के सभी ग्रंथ साहित्य के रूप में विद्यमान है। काव्य के रूप में उन्हें लिखा गया है। वराहमिहिर द्वारा प्रदत्त ज्ञान इसका उदाहरण है। संस्कृत को तो सिर्फ शादियों में मंत्रोचार के दौरान सुना जाता है, अर्थात संस्कृत सिर्फ कर्मकांड की भाषा बनकर रह गई है। जबकि वह ज्ञान-विज्ञान की भाषा है। कुल मिलाकर महात्मा गांधी द्वारा शिक्षा की दिशा में देखा गया स्वप्न अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति में साकार होता दिखाई दे रहा है।
व्याख्यानमाला के आरंभ में संस्थान की शिक्षिकाओं द्वारा सद्भावना गीतों की प्रस्तुति दी गई। व्याख्यानमाला को उज्जैन के पहले कम्युनिटी रेडियो दस्तक 90.8 एफएम पर भी सुना गया। वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री प्रेम नारायण नागर, पूर्व संयुक्त संचालक शिक्षा श्री बृजकिशोर शर्मा, संस्थान प्रमुख श्री युधिष्ठिर कुलश्रेष्ठ एवं श्री संदीप कुलश्रेष्ठ सहित संस्थान के पदाधिकारियों द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, कविकुलगुरु डॉ शिवमंगल सिंह सुमन और कर्मयोगी स्व. श्री कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ के प्रति सूतांजलि अर्पित कर दीप प्रज्वलित किया गया। भारतीय ज्ञानपीठ के सद्भावना सभागृह में डिजिटल व्याख्यानमाला को सुनने के लिए कालिदास अकादमी के निदेशक डॉ. गोविंद गंधे, प्रो. बालकृष्ण आंजना, श्री नरेंद्र कुमार त्रिवेद, डॉ. बी बी पुरोहित, श्री रमेश चंद्र जोशी, श्रीमती कृष्णा कुलश्रेष्ठ, डॉ. आर. डी. तिवारी, श्री मुरलीधर साहू, श्री राम किशोर साहू, श्री नंदकिशोर साहू श्रीमती कीर्ति पटेल सहित बड़ी संख्या में शहर के बौद्धिकजन उपस्थित थे। संचालन प्रो. नेहा चौरे ने किया ।
0 टिप्पणियाँ