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मैं जीना चाहती हूँ (कविता) -मनीषा 'मन'


मैं अब हँसना चाहती हूँ
मैं अब उड़ना चाहती हूँ
बहुत मार लिया मन को
मैं अब जीना चाहती हूँ।

बहुत रुलाया हैं आंखों को
बहुत भूलाया है सपनों को
अब अपने इस दिल को
खुशियों के पल देना चाहती हूँ।

जानती हूँ और मानती भी हूँ
मेरे इस बदलाव को यहाँ
कोई स्वीकार नहीं करेगा
पर मैं अब सिर्फ अपने लिए
मुस्कुराना चाहती हूँ।

मेरी मुस्कुराहट पर भी
व्यंग्य ही उछाले जाएंगे
सैकड़ों नए लांछनों से
फिर से हम नवाजें जाएगें
पर उन लांछनों को लांघकर
कुछ कर दिखाना चाहती हूँ।

जमाने के चाहे-अनचाहे
सारे बंधनो को तोड़ कर
खुद से किये वादों को
निभाना चाहती हूँ
हाँ मैं अब खुद के लिए
जीना चाहती हूँ।

-मनीषा मन, रीवा

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