Subscribe Us

विविधता में एकता के प्रतीक हमारे संविधान में संशोधन का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए - जी.डी. पारीख


उज्जैन। भारतीय संविधान वसुधैव कुटुंबकम् की महान संस्कृति की भावना से परिपूर्ण है। हमारे देश में विभिन्न धर्म, जाति ,संप्रदाय के लोग रहते हैं और हमारा संविधान इन सभी के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए विविधता में एकता के प्रतीक के रूप में बनाया गया है। इसमें आवश्यकता अनुसार संशोधन किया जा सकता है किंतु इसकी आत्मा को नहीं बदला जा सकता। ऐसे संविधान में बदलाव करना अर्थात घड़ी की सुईयों को पीछे करने के समान है। यदि समय के अनुसार परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती है तो परिवर्तन का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए । यदि हम संविधान को पूरी तरह बदल देते हैं तो यह देश की अखंडता को हटाने के समान होगा। पुराने नियमों को 21वीं सदी में वापस नहीं लाया जा सकता। हमारे देश में गरीबी, बेरोजगारी असमानता जैसी समस्याएं हैं, किंतु ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान में कोई कमी है। ऐसा नहीं लगता कि संविधान में किसी बड़े बदलाव की आवश्यकता है, ना ही यह उचित समय है किसी बदलाव का। फिर भी यदि बदलाव महसूस किया जा रहा है तो वैचारिक सहमति से आंशिक संशोधन किया जा सकता है । उक्त विचार पूर्व जिला एवं सत्र न्यायाधीश मुंबई से माननीय श्री जी. डी. पारीख ने भारतीय ज्ञानपीठ में आयोजित कर्मयोगी स्व. श्री कृष्णमंगल सिंह कुलश्रेष्ठ की प्रेरणा और पद्मभूषण डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' की स्मृति में आयोजित अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला के पंचम दिवस पर प्रमुख वक्ता के रूप में व्यक्त किये।

"भारतीय संविधान में परिवर्तन की संभावना" विषय पर अपनी बात रखते हुए श्री जी. डी. पारीख ने कहा कि जब हमारा संविधान बना, तो संविधान समिति के सभी सदस्य विधानसभा से चुनकर आए थे। किसी व्यक्ति विशेष ने उन्हें नहीं चुना था। संविधान बनाते समय हर खंड पर बहुत चर्चाएं हुई। महीनों तक मंथन किया गया और विचार के बाद जो मसौदा तैयार हुआ उसे डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में निर्णायक रूप दिया गया। डॉ आंबेडकर भी जनता द्वारा चुनकर आए थे । इस संविधान में प्रत्येक वर्ग का ध्यान रखा गया है। न्याय, स्वतंत्रता, समानता लोकतांत्रिक मूल्य इसमें सम्मिलित है। मौलिक अधिकारों को इसमें स्थान दिया गया है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है और देश में कहीं भी आंदोलन करने की भी स्वतंत्रता है। भारत के किसी भी हिस्से में कहीं भी बसने की स्वतंत्रता भी संविधान प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त व्यापार, व्यवसाय की स्वतंत्रता के साथ जीवन के अधिकार संविधान में मुख्य रूप से है। धार्मिक अस्तित्व को बनाए रखने का अधिकार भी हमारा संविधान देता है और इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा अनुसार धर्म के पालन करने का अधिकार है। आवश्यकता इस बात की है कि संविधान में व्यक्त अधिकारों का उपयोग करते हमें आना चाहिए ।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए पूर्व जिला एवं सत्र न्यायाधीश श्री शशि मोहन श्रीवास्तव ने कहा कि संविधान समिति ने संविधान बनाते समय विश्व के सभी उपलब्ध संविधानों का अध्ययन किया और उसके पश्चात हमारे संविधान की रूपरेखा तैयार की गई थी। समिति के कई सदस्यों का मानना था कि भविष्य में संविधान में बदलाव की संभावना नहीं रखी जाए, किंतु नेहरू जी ने कहा कि यदि इस तरह का संविधान बन जाता है तो यह देशवासियों के हित में नहीं होगा, इसलिए संविधान में समय की मांग और आवश्यकता के अनुसार संशोधन का लचीलापन होना आवश्यक है। अनुच्छेद 368 में अंतर्गत संविधान के संशोधन की प्रक्रिया की संभावना रखी गई, किंतु संविधान के मूल स्वरूप में परिवर्तन संभव नहीं है। संसद एक प्रकार से जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है, जो जनता द्वारा कानून बनाती है। आज ऐसा वातावरण निर्मित हो गया है कि प्रत्येक दल अपने विरोधी दल को दुश्मन की तरह देखता हैं। यह निश्चित ही दुखद और चिंतनीय स्थिति है । बेहतर यह होगा कि ऐसी स्थिति निर्मित हो कि सभी दलों के विचारों को महत्व दिया जाए। सभी दल एक दूसरे के विचारों का सम्मान करें और सर्वसम्मति से देश को विकास के पथ पर ले जाने पर ध्यान दें।
कार्यक्रम के आरंभ में संस्थान की शिक्षिकाओं द्वारा सद्भावनापूर्ण गीत की प्रस्तुति दी गई। व्याख्यानमाला को सुनने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सद्भावना सभागृह में एडवोकेट वीरेंद्र शर्मा, एडवोकेट भूपेंद्र सेंगर, एडवोकेट प्रदीप गोस्वामी, एडवोकेट मुकेश ठाकुर, एडवोकेट रशीदुद्दीन, डॉ रफीक नागोरी,डॉ. रमाकांत नागर,सुश्री शीला व्यास, डॉ. स्मिता देराश्री, श्री सुधीर श्रीवास्तव, डॉ सुनीता श्रीवास्तव सहित बड़ी संख्या में बौद्धिकजन और पत्रकारगण उपस्थित थे। संचालन संस्था डायरेक्टर श्रीमती अमृता कुलश्रेष्ठ ने किया।व्याख्यानमाला को उज्जैन के पहले कम्युनिटी रेडियो दस्तक 90.8 एफएम पर भी सुना गया।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ