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कल-कल नर्मदा-छल-छल घाट (रिपोर्ताज) -अखिलेश 'दादूभाई'


एक पूरा दिन नर्मदा तट पर मैं
कैसा पवित्र वातावरण है माँ नर्मदा का जिसमें कभी देवराज इंद्र ने अपने पित्रों का तर्पण किया, जहाँ हाथ जोड़े पंक्तिबद्ध थे 33 कोटि देवी-देवता। आज वर्तमान का साक्षी बन मैं देख रहा हूँ सृष्टि का अनुपम सौंदर्य। अहा! अंधियारे की छाया जल पर पड़ रही है इसीलिए जल श्याम-श्याम-सा है; घनश्याम-सा है। जब भी मन उदास या अनंदित होता है, दौड़ा आता हूँ माँ के पास।

आकाश में भोर के चिह्न अभी-अभी दिखना आरंभ हुए हैं। देव काल की सौम्य केसरिया किरणें जो सृष्टि के जाग्रत देव के पीछे से वसुंधरा दर्शन को झाँक रहीं थीं दौड़ पड़ीं झूमती, चमकती अचला के आँचल में समाने के लिए; जैसे बच्चा नींद से जागने के बाद सीधा अपनी माँ की गोद में आता है।

इसी मणिकाल में जबलपुर-गौरीघाट पर खड़ा मैं निर्निमेष दर्शन कर रहा हूँ माँ नर्मदा के स्वरूप का। भर-भर दृष्टि आनंद ले रहा हूँ भगिनी मंदाकिनी की स्नेहिल लहरों का, हर्षित हो सुख पा रहा हूँ पुत्री शांकरी की चंचल क्रीड़ा से और मुस्कुरा रहा हूँ विपाशा सखी की छेड़खानी पर जो खिल-खिलाकर मेरे पाँव भिगो रही है। धन्य-धन्य हूँ प्रकृति रक्षक, संस्कृति संवर्धक, शिवतनया, रुद्र-सी देह वाली जग कल्याणी, महादेवी, महाशक्ति रुद्रदेहा के श्रीचरणों में आकर। यह, वह पावन जल है जिसमें एक दिन मुझे भी विलीन होना है, पंचतत्व का अंश बन।
मन-कलश में उड़ेल रहा हूँ इस
जल-ध्वनि को जो कभी हौले तो कभी तीव्र घाट आलिंगन करती श्रीराम-भरत मिलाप का स्मरण करा रही है। इस लहराते जल में भक्तों द्वारा प्रातः अर्पित दियों के पुष्पसज्जित दोने हिलकोरे के साथ आगे बढ़ रहे हैं। जिनका साथ धूप, अगरबत्ती का सुगंधित, बलखता धुआँ दे रहा है। पवन भी इन प्रकाश पुंजों को नहीं बुझाती क्यों कि इन दीपों में कपूर जो लगा है। यह समूचा घाट धरा-धन्य भावक है।

नयनाभिराम गौरीघाट में लालिमा के बढ़ते तेज के साथ घाट की हलचल भी बढ़ रही है। दुकानों में सामान सज रहे हैं, होटलों में पकवान और पंडितों की चौकियों में भगवान। विश्व को व्यवस्थित करने वाले स्वयं व्यवस्थित हो रहे हैं दक्षिणा राशि के आधार पर पूजित होने के लिए।

ज्ञान का उत्स जगत है, यह सिद्ध होते मैं देख रहा हूँ। अरूणोदय काल में मार्ग मध्य गौ-झुंड सिर-से-सिर जोड़े बैठे हैं। यह इनकी सुरक्षित स्वभावजन्य व्यवस्था है। ठीक ऐसे ही सभी नावें नदी मध्य एक-दूसरे से बंधी हैं। यह नाविकों द्वारा रात्रि में सुरक्षित नाव पार्किंग की व्यवस्था है।

दिवस आहरण के साथ तारिणी समूह भी गतिशील हो रहा है। सुंदर बेल-बूटे, मालाएँ, लाइटिंग, बिछाई से सुसज्जित ये नौकाएँ लोगों के आकर्षण का केंद्र हैं। भक्तों की बढ़ती पदचाप मानो घाट जगाती है।

सीढ़ियों पर बैठा जहाँ मैं पंछी कलरव का आनंद ले रहा हूँ; वहीं लोग प्रसाद के रूप में कितने खाद्य पदार्थ जल में डाल रहे हैं। एक गृह स्वामिनी ने तो रेवड़ी ऐसी चढ़ाई कि पैकेट ही नर्मदा जल में फेंक दिया। चिंतन विचार है- भारत में नदियों को पूजा जाता है, पर उनकी स्वच्छता को अस्वच्छता का श्राप लगा है। वहीं पश्चिम के देशों में इसे केवल नदी के रूप में देखते हैं, पर कितनी स्वच्छता है तटों पर।

इन दुःखद स्थिति को देख कवयित्री प्रतिमा कह उठतीं हैं-
हमसे-तुमसे ठेस लगी है, सोमसुता रानी को
लज्जा से कम होते देखा रेवा के पानी को

इसी घाट से लगा जिलहरी घाट है। यहाँ सुबह-सुबह तैराक़ी सीखने वालों का तांता लगा रहता है; जबलपुर भर से लोग आते हैं। पता चला है कि यहाँ कुछ लोग बच्चों को निःशुल्क तैरना सिखाते हैं। कितना अच्छा है बाल्यकाल से नदी के साथ मित्रता। यहाँ से नाव में बैठकर कई लोग सामने के पाट पर जा रहे हैं। वहाँ बैठने, पिकनिक मनाने के लिए स्वच्छ सीमेंटेड साइट है। एक परिवार यहाँ शॉर्ट वीडियो बना रहा है; आज-कल रील्स का बड़ा चलन है।

दिन चढ़ आया। रेवा जल में नील गगन की छाया नीले जल का भान करा रही है। शिव की पुत्री मानो श्रीहरि का क्षीर सागर लग रही है। मंदिरों में पूजा-पाठ, पान-प्रसाद चढ़ना, लोगों का स्नान यह दिन भर चलने वाली प्रक्रिया है। भारतीय तीर्थों में तीन बातें अवश्य दिखतीं हैं : भक्ति-भाव, अस्वच्छता और दीनता अर्थात भिखारी। यहाँ भी यही हाल है।

परिवार-के-परिवार भीख माँग रहे हैं। गंदे, फटे कपड़े पहने, रूखे उलझे बाल, बिना नहाए, मलिन मुख वाले बच्चे टूटे-फूटे प्लास्टिक के खिलौनों से खेलेते रहते हैं और जैसे ही लोगों को देखते हैं घेर लेते हैं हाथ फैलाकर, घिघियाते- "ऐ भाया...! पैसा दो भैया जी...कुछ तो दे-दो, नरबदा माई भला करेगी।" इन नासमझ बच्चों को भीख माँगने की बहुत समझ है। इनके माता-पिता अच्छे तंदरुस्त हैं, पर माँगते भीख ही हैं। तीन झोले की गृहस्थी के साथ तट पर रहना-सोना-खाना और परिवार बढ़ाना यही इनका जीवन है। सोचें, जीवन...!

इन पर दया, सहानुभूति, सहायता, उत्थान के भाव एक साथ उठ खड़े हुए, किंतु यह भी सत्य है कि ये बड़े निर्मम और रूखे स्वभाव के होते हैं। आपने कुछ दिया तो ठीक नही दिया तो अपशब्द बोलकर निकल जाते हैं।

भावनाओं के इस विस्तारित क्षेत्र में कितने लोग दिख रहे हैं। कोई परिवार के साथ आनंद मना रहा है, कोई एकाकी प्रार्थना में लीन है, कोई तस्वीर खींच रहा है, कोई जलचरों को दाना डाल रहा है। नावों के समीप सेल्फ़ी लेते एक युगल की भंगिमाओं को देख लगा, यह रॉबर्ट कॉर्नेलियस (1839 में प्रथम स्वचित्र खींचने वाले) के पक्के अनुयायी हैं।

एक बात निश्चित है, चाहे भक्त हो, दर्शनार्थी हो, प्रार्थी हो या पर्यटक हो याचित भाव तो सभी के हैं और जिसकी जैसी भावना वैसी इच्छापूर्ति। यही प्रताप है 3 साल, 3 महीने, 13 दिनों की पद परिक्रमा वाली त्रिप्रदेश गामिनी, दर्शन मात्र से कल्याण करने वाली, पश्चिम वाहिनी जलधार का।

अरे, यह कैसा शोर! देखा, पुलिस लोगों के वाहनों को मुख्य सड़क से हटा रही है और मार्ग खाली कर रही है। एक महिला सिपाही से पूछा तो कठोरता से उन्होंने कहा, "सभी को हटा रहे हैं, एक वरिष्ठ नेताजी आ रहे हैं।" विचारों ने मन के किवाड़ खट-खटाए और दिल को झकझोरते हुए प्रश्न किया, "नेता आ रहे हैं इसका मतलब अन्य भक्त हट जाएँ! ऐसा क्यों...? क्या जन प्रतिनिधि का जनता के प्रति यही उत्तरदायित्व है। बुद्धि ने उत्तर दिया, जन प्रतिनिधि चुनाव पूर्व जन सेवक, पश्च्यात् जनस्वामी हो जाते हैं।

काफ़िले के साथ नेताजी आए, माँ को प्रणाम किया। एक सेवक ने अगरबत्ती जलाई; एक ने दिया और एक ने उनके आरती करने के बाद दीप नर्मदा जल में प्रवाहित किया। मुझे लगा चुस्त-वस्त्रों के कारण आदरणीय अधिक झुक नहीं सकते थे। वो देखो, वापस चला उनका कारवाँ शान से। अब पुलिस हट गई और आम जन फिर आ गए उसी सड़क पर जो थोड़ी देर पूर्व राजमार्ग-सी थी। क्या माँ ने यह देखा होगा...? हाँ-हाँ अवश्य देखा होगा उच्च-भ्रू-भावना का प्रभुत्व-प्रमाद। मेरा मन ऐसा कहता है।

उधर पुनः भीड़ लग रही है। मैं बढ़ गया देखने के लिए कि क्या हुआ। आखिर यही सब तो मैं देखने आया हूँ, तभी तो लिखूँगा सत्यदर्शना रिपोर्ताज। एक सज्जन भंडारा कर रहे हैं। सामने पूड़ी-साग की दुकान से खाने का वितरण करवा रहे हैं। मैं पीछे क्यों रहूँ। हो गया पंक्तिबद्ध और देखिए यह है मेरे हाथ में पूड़ी-सब्जी के दोने। आनंदम्! गौरीघाट की पूड़ी-सब्जी बड़ी स्वादिष्ट है, फिर यह तो भंडारे का प्रसाद है। वाह...!

वह संध्या स्मृत हो आई जब इस तट पर सहित्यकारा आदरणीया मेहा मिश्रा जी और आदरणीय ब्रजेश शर्मा जी के साथ खिचड़ी का प्रसाद पाया था। यह प्रसाद वितरण आदरणीया मिथिलेश बड़गईयाँ जी द्वारा किया गया था। वह साँझ इस तट की मेरी निधि-साँझ थी। न जाने कितने बार मैं इस घाट पर आया हूँ, पर आज इन विद्वानों के संग-संग कदम-से-कदम मिलाकर चलना और बालुवाहिनी के दर्शन करना अंतः मन को पवित्र कर गया।

इधर दिन चढ़ने के साथ बच्चों के खिलौनो की दुकानें अपने अलग रूप में सज गईं हैं। दुकानदार ने धरती पर दरी बिछाकर सारे खिलौने सजाए है। कैसा सुंदर संसार सजा है! तुरतुरी, भोंपू, बाँसुरी, डुगडुगी की पंक्ति के नीची ट्रक, कार, बस खड़े हैं, उनके सामने बाइक्स की लाइन है इक्का-दुक्का साईकल भी बड़ी अच्छी लग रही हैं और वो, वहाँ किनारे करीने से प्लास्टिक के बैट-बॉल रखे हैं जो बच्चों के लिए विशेष आकर्षण हैं।

दूसरी छोटी दरी में गुड़ियों का संसार बसा है। कितनी प्यारी-प्यारी गुड़ियाँ हैं। मैंने भी एक गुड़िया अपनी छोटी गुड़िया के लिए ख़रीदी। सच दोस्तों! खिलौने देखकर आज भी मन मचल उठता है, सब कुछ उठाने को। मेरी बड़ी बेटी कॉलेज में है और देखो तो उसने एक बनी ख़रीदा है अपने लिए यह है खिलौने का जादू जो वय-सीमा से परे है।

मित्रो! तनिक नभ दर्शन तो कीजिए...! नर्मदा दर्शन का अपना नियमित दायित्व पूर्ण कर सूर्यदेव विश्राम चाह रहे हैं। इसीलिए संभवतः उन्होंने चंद्र आह्वान किया है। वह धीरे-धीरे सकुचाता, लजाता गगन से ताका-झाँकी कर रहा है। यह लीजिए संध्या आरती की घड़ी आ गई। चलिए शीघ्र चलकर उमा घाट पर अपना स्थान सुरक्षित कर लें अब भीड़ और बढ़ेगी।

संध्या आरती के समय गौरीघाट और जिलहरी घाट के मुख्य प्रवेश पर बेरिकेट्स लग गए हैं, क्योंकि वाहनों को खड़े करने की जगह नहीं है। उधर सामने आरती स्थल पर सुसज्जित ऊँचे चबूतरों पर पंडितों नें पाठ आरंभ कर दिया है। सामने नावों पर सवार होकर श्रद्धालु आरती देख रहे हैं। आर्च आकार में तथा पीली और जामुनी छतरियों वाली रंग-बिरंगी लाइट्स जगमगा उठीं। इनका बिंब नर्मदा नीर में लहरों के साथ झूमता दिख रहा है; अहा! कैसा जगमगाता पानी है!

नर्मदाष्टक, मंत्र पाठ, नर्मदा-आरती, शंख-घंटे के निनाद के साथ धूप, अगरबत्ती की सुगंध मानो धरती का संदेश अंबर को सुना रही हो। कैसा अलौकिक सौंदर्य समृद्ध घाट लग रहा है। सहस्त्रों मुख से मुरला आह्वान, अद्भुत...! अद्भुत...!! अद्भुत...!!!

प्रसाद पाने के साथ मन ने कहा चलो चलें अपने घोंसले में। तभी मुझे कुछ सम्मिलित स्वर सुनाई दिए; "जय हिंद...! जय भारत...!" मैं उस स्थान की ओर लपका। आश्चर्य! घाट के दूसरे भाग में गौरीघाट परिक्षेत्र के सामान्य और अति सामान्य घरों के लगभग 100 बच्चे पंक्तिबद्ध, मर्यादित रूप से बैठे हैं। सामने श्वेत बोर्ड पर एक युवा शिक्षक उन्हें विज्ञान का ज्ञान दे रहे हैं।

न्यूटन के नियम इन बच्चों को जिस रूप में यह युवा गुरु सीखा रहे हैं वह प्रशंसनीय है। यह छोटे-छोटे बच्चे भी न्यूटन-मित्र बन रहे हैं। अर्थ अभाव शिक्षा में बाधा न बने इसके लिए इस युवा ने अपने जीवन लक्ष्य का एक भाग इन बच्चों के नाम कर दिया। सराहनीय है यह गुरु दायित्व।

साँझ की बेला आ गई। पंछी अपने-अपने घोंसलों में छिप गए हैं जहाँ कुछ नन्हीं चोंचें प्रतीक्षरत् हैं अपनी चिरपरिचित चोंच के स्पर्श के लिए। नर्मदा जल पुनः श्याम-सा दिख रहा है। तट पर धूप, अगरबत्ती की सुगंध वातावरण में धार्मिकता घोल रही है। सहसा मेरा ध्यान गया कुछ स्त्रियाँ दीप दान करते-करते माई की बंबूलियाँ गा रहीं हैं। मैं समीप पहुँचा तो उनके शब्दों को पहचान गया। ये तो मेरी पत्नी, प्रतिमा की लिखी बंबूलियाँ गा रहीं हैं-
नरबदा तट पे दीपक जलें रे...
दीपक जलें रे मैया हो रई संजा की बेरा आरती रे...।
नरबदा तट पे हो...!

मैं आनंदित हूँ इस पवित्र जल के सानिध्य में दिवस प्रवास कर और दिवसांत माई की आराधना सुन। मन मुदित है पावन जल के स्पर्श से। पीढ़ियाँ आतीं हैं, जातीं हैं; परंतु कल-कल करते नर्मदा जल के छल-छल छलकते घाट सदियों से अस्तित्व में हैं और सदियों तक रहेंगे। समय की शिला पर यहाँ हर दिन, हर क्षण अंकित हो रही है- 'आस्था-विश्वास-भक्ति!' वंदे...!
-अखिलेश 'दादूभाई'
(कथेतर लेखक)

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