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जूते और किताब़ (व्यंग्य) -डॉ रमेशचन्द्र


जूते और किताब में से महत्वपूर्ण कौन है, यह निर्णय कर पाना बड़ा कठिन है। किसी को जूते की आवश्यकता है तो किसी को किताब की। यदि किसी को दोनों में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाए तो शायद वह जूते को को ही पसंद करेगा। उसके लिए किताब शायद इतनी आवश्यक नहीं होगी जितना कि जूते की । किसी भूखे से पूछा जाए तो शायद वह दोनों ही को लेने से इंकार कर देगा, क्योंकि उसे रोटी की आवश्यकता इन दोनों से अधिक होगी।

जूते आज स्टेटस सिंबल बन गये हैं। जिस आदमी के पैरों में शानदार और चमचमाते जूते होते हैं, उससे उसकी हैसियत का पता चल जाता है जबकि कोई किताब का बोझा भी उठाता दिखाई देता है तो वह निरा मूर्ख और अति सामान्य आदमी माना जाता है। उसे अपने पास किताब होने का या अपनी किताब से प्राप्त ज्ञान का कोई लाभ नहीं मिल पाता है। यदि और खुलासा किया जाए तो आज जूते का मूल्य अधिक है और किताब का मूल्य कम है।

मूल्य के आधार पर जूते दुकान के शीशे की आलमारी या शोकेस में रखे जाते हैं जबकि किताब दुकान में या दुकान के बाहर सड़क पर भी बिकती दिखाई देती हैं। इसका अर्थ यह नहींं कि किताबों का मूल्य नहीं है। वे मूल्यवान है, परंतु उसकी दृष्टि में जिसके लिए वे मूल्यवान है। उसके लिए वे अनमोल ख़ज़ाना है, बहुमूल्य है। जूते सबके लिए आवश्यक हो सकते हैं, परंतु किताब सबके लिए आवश्यक नहीं हैं। जो किताबों का महत्व और मूल्य ही नहीं जानता उसके लिए वे रद्दी के अलावा कुछ नहीं है। किताबें ज्ञान का भंडार है, यह ज्ञानी ही समझ सकता है। इसलिए किताब उसके लिए बहुत मायने रखती है।

लेकिन समय के बदलने के साथ साथ हर चीज़ भी बदलने लगी है। जूते भी अब नये नये और चमचमाते हुए हर किसी को शोकेस में नज़र आते हैं तो उन्हें खरीदने की इच्छा बलवती हो जाती है, वहीं किताब चाहे कितनी ही अच्छी हो, शानदार क़वर और फोटो या डिज़ाइन बनी हो उतनी आकर्षित नहीं कर पाती। यही वज़ह है कि जूते की दुकान पर अक्सर भीड़ दिखाई देती है, जबकि किताबों की दुकान में बहुत कम या इक्का दुक्का लोग ही दिखाई देते हैं। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि जूता खरीदने गया हुआ व्यक्ति किताब खरीद लाया हो जबकि अधिकांश लोग किताब खरीदने जाते हैं, परंतु शोकेस में शानदार जूते देख कर वे किताब के बजाए जूते खरीद लाते है।

जूते जूते हैं और किताब किताब है। एक पैरों की शोभा बढ़ाता है तो दूसरा दिमाग़, मस्तिष्क, बुद्धि यानी ज्ञान की। दोनों की आपस में तुलना नहीं की जा सकती और करना भी नहीं चाहिए।

-डॉ रमेशचन्द्र,इंदौर

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