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मुक्तक - यशवंत दीक्षित


क्या रखा है फूलदानों में
नैनों में बसते आसमानों में
गुज़र जाए जो अपनों संग,
मज़ा ही मज़ा आशियानों में

मोती मिले या काटें,मगर पड़ता है निभाना.
बुरे एहसास सुनने में कतराता है ये ज़माना.
जिस हाल में भी हो,फसलें उगाएं प्यार की,
रहता है मौत के बाद भी ये यादों का ख़ज़ाना.

शोर, सब्र,निरवता को उजड़ी बस्तियों ने कह दिया
पलकों से झरती शबनम को सिसकियों ने कह दिया
कह न सके खुलकर जो बात जुबां से अपनी,
क़लम के ज़रिए कागजों पर उंगलियों ने कह दिया

मतलब भरी क्यों हो रही है ज़िंदगी
इंसानियत को क्यों खो रही है ज़िंदगी
हवस-दौलत के पीछे भाग रहा इंसां,
इसीलिए ही अब तो रो रही है ज़िंदगी

-यशवंत दीक्षित, नागदा

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