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किसे वोट दूँ (कविता) -पदमचंद गांधी


मैं यह समझ नहीं पाता हूँ
सोच-सोच कर थक जाता हूँ
किसे वोट दूँ 
समझ नहीं पाता हूँ

लोकतंत्र की छाती पर करते हैं सब चोट
फिर भी निर्भीकता से मांगा करते हैं वोट
कथनी करनी में रखते हैं सदा सदा खोट
सच्चाई नहीं जरा दिल में वादों की होती है पोट
किस वोट दूँ समझ नहीं पाता हूँ

चारों तरफ शब्द बन तीर से लगते हैं 
झूठे आरोप प्रत्यारोप दिल में 
कांटों से चुभते हैं
बांट दिया भारत को जाति ,धर्म, संप्रदायों में
भाषा ,क्षेत्र और वंशवाद 
नहीं छोड़ा इन शहजादों ने
यही सोच सोच कर उठ जाता हूँ
किसी वोट दूँ समझ नहीं पाता हूँ

चिंतन कर और देख
पहले के नेता कैसे थे
देश के खातिर जीना मरना 
ऐसा वचन निभाने थे
देखो आज क्या दशा बन गई 
इन नेताओं की
बेच दिया सब ईमान धर्म 
सत्ता को हथियाना में
यही सोच सोच कर थक जाता हूँ
किसी वोट दूँ समझ नहीं पाता हूँ

-पदमचंद गांधी, भोपाल

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