माँ के आँचल की छाँव छोड़ी । अपना बचपना भाव छोड़ा । कच्ची पक्की पगडंडियाँ, घुमावदार गलीयाँ और प्यारा गांव छोड़ा । लंगोटिया यार , पिता जी घर-बार छोड़ा। बोझ अपनों का , त्याग सपनों का , दुर्दिनता का शिकार हूँ , पर अपनों का सपना साकार करता हूँ । पैर बिवाई फट रही मेरी , फिर भी कडी मेहनत करता हूँ। सूखी रोटी खाता हूँ , पर पकवान खिलाता हूँ । बेशक हँसता कम हूँ , पर सबको हँसाता हूँ । परिवार से बहुत दूर हूँ , क्योंकि मैं मजबूर हूँ । घबराता नहीं मैं तनिक , भार उठाता हूँ अधिक । तिनका-तिनका जोड़ता , सीना तान गर्व से , कहलाता हूँ श्रमिक।
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