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छठ पूजा एक चिंतन- अरविंद पाठक 'निष्काम'



छठ के दिन डूबते सूर्य को पूजना एक अद्भुद परम्परा है।कुछ जिज्ञासुओं को यह जिज्ञासा हुई कि ऐसा क्यों, ,? सब लोग उदीयमान को नमस्कार करते हैं फिर डूबते सूर्य को पूजना कितना प्रासंगिक है?

मैं इस प्रश्न को पुरातन परम्परा के उदाहरण में आपको उलझाना नही चाहता हूं।इस प्रश्न का समसामयिक संदर्भ से आपको उत्तर देने का प्रयास करता हूँ।

भगवान सूर्य को आज फेयरवेल दिया जाता है और कल उनका वेलकम होगा।आज भी सीनियर को फेयरवेल और आनेवाले को वेलकम की परंपरा है।

वृद्ध हमारे संस्कृति में प्रथम पूज्य है या नही? यदि हां तो फिर सांध्यकालीन सूर्य को पहले पूजा होनी चाहिए और इसीलिए प्रथमतः संध्या काल में प्रथम अर्घ्य का इस पर्व में विधान है।उदीयमान सूर्य को तत्पश्चात अर्घ्य या पूजा होती है कि यह उदीयमान सूर्य हमें वर्ष पर्यंत ऊर्जावान,धनवान,और सुखी बनाये रखें। इसीलिये संभवतः सूर्य के संध्या काल की पूजा पहले होती है। हम वर्षपर्यंत जिसके सानिध्य का लाभ लिए उसे कैसे भूल जाएं। भारत कृतज्ञों का देश है कृतघ्नों का नही।


अब आपको इस परम्परा से जुड़े प्राचीन मंदिरों के परिचय से इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करता हूँ।कोटा शहर से पूर्व दिशा के तरफ एक गांव है जिसका नाम है बुढादीत जहां हजारों वर्ष पुराना मंदिर है ।जिसका नाम है बुढादीत सूर्य मंदिर ।बूढ़ादीत शब्द अपभ्रंश है बृद्ध आदित्य का यानि इस मंदिर का नाम बृद्ध आदित्य ही होगा जो कालांतर में अपभ्रंश हो कर बुढादीत हो गया है।इसका एक प्रमाण यह कि इस मंदिर का सांध्यकालीन आरती का ही विशेष महत्व है।आज भी इस मंदिर में कई वर्षों से अखंड दीप घी का प्रज्वलित होते आ रहा है।विगत वर्ष आज के दिन उस गांव के परम मित्र कवि आर सी आदित्य के साथ छठ पूजा वही किया था।

एक और उदाहरण है बिहार के औरंगाबाद जिले में ग्रन्ड ट्रंक रोड के पास दो मंदिर हैं एक देव में तथा दूसरा उमगा में ।देव के मंदिर का मुख्य द्वार पश्चिम की ओर है और उमगा का पूर्व की ओर ।कुछ लोगों का मानना है कि संध्या का अर्घ्य उमगा और प्रातः काल का अर्घ्य देव में दिया जाता था।उमगा से संध्या में अर्घ्य दे कर ब्रती रात्रि भर गीत ,भजन गाते गाते देव पहुंचते थे और सूर्योदय जे अर्घ्य से छठ के ब्रत का समापन होता था।

इस व्रत का एक और अद्भुद पक्ष है ।भारत के हिन्दू पञ्चाङ्ग सूर्य उदय से काल गणना के लिये निर्धारित होते हैं और मुस्लिम धर्म में चाँद को मानते हैं।इस पूजा में व्रत का प्रथम दिवस चांद के उदित होने पर चाँद को अर्घ्य दे कर उन्हें साक्षी के रूप में रखते हैं।

इस व्रत में ऊंच नीच ,छोटा बड़ा ,और धर्म को भी ज्यादा महत्व नही है ।कोई भी इस व्रत को कर सकता है और करता भी है।किसी भी पूजा में आचार्य की आवश्यकता होती है पर इस पूजा में यह आश्यक नही।

-अरविन्द कुमार पाठक 'निष्काम', नागदा

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