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डर (लघुकथा) - अशोक आनन


'सावित्री ! कभी अपनी बिटिया को भी साथ ले आया करो । '

' मेम साहब ! डर लगता है ....! '

' इसमें डर की क्या बात है ..... ? '

' आपकी बिटियारानी को महंगे खिलौनों से खेलता हुआ देख , कहीं वह भी उनसे खेलने के लिए मचल न जाए । '

कुछ देर वह रुकती हुई......फिर बोली - ' मेम सा . ! आप तो जानती ही हैं कि हमारी इतनी कहां हैसियत कि हम उसे इतने महंगे खिलौनों से खिला सकें । हम ठहरे ग़रीब और आप.............. । '

इतना कहते-कहते.....उसकी आंखें छलछला आईं और वह पूर्ववत अपने काम में जुट गई .....!

अब ..... वह बर्तन मांजते हुए ..... उन्हीं में अपनी बिटिया की खुशियां तलाशने लगी ।

-अशोक आनन ,मक्सी



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