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सतिगुरु नानक प्रगटिया, जग चानण होआ -चेतन चौहान

देश कोई हो, काल कोई हो, समाज कोई हो, परन्तु संतो की महिमा सदैव गायी जाती रही है। उनकी वाणी का प्रभाव सार्वभौमिक और सार्वकालिक रहा हैं उनके गुणों की विवेचना व उनका स्वरूप निर्देशन समस्त विश्व साहित्य में एक सा है। विश्व के किसी भी भाग में जन्मा संत किसी भी दूसरे भाग में जन्मे संत से अभिन्न है। कोई भी संत परम्परावादी नहीं होता, अपितु आगे चलकर ये परम्परायें वाद-विवाद, भेद-अभेद के दुष्चक्र में फंसकर दृष्टिगत हुई है किन्तु यह बात सामने आयी है कि स्वयं सन्तों में कभी मतभेद नही रहा। उनका दृष्टिकोण सदैव मान कल्याणकारी रहा। उन्हें अपने सुख-दुख की चिन्ता नहीं बल्कि संसार के जीव प्राणियों की चिंता रही। सन्तों ने हमेशा ही जीव जंगत को उस परमात्मा का अंश व अभिव्यक्ति माना है।

इन्हीं सिद्धांतों की कसौटी पर सिख धर्म के सृजक और गुरु परम्परा के हामी दिव्य पुरूष गुरु नानक देव पूर्णरूपेण खरे उतरे है, जिन्होनें मानव संस्कृति की जड़ों को इस धरती में गहराई तक गाडा हैं गुरु नानक का जन्म आज से 590 वर्ष पूर्व 1433 में पंजाब के एक गांव तलवंडी (ननकाना साहिब) में हुआ था। इनकी माता का नाम त्रिपता व पिता कालू थे। उनका जन्म, उनके कार्य व सीख सब कुछ अलौकिक थे। जन्म के तेरह दिन बाद इनका नाम नानक रखा गया, लेकिन घर वालों को यह नाम पसन्द न आने के कारण पण्डित ने उन्हें समझाया कि यह बालक साधारण नहीं है बल्कि इसे हिन्दू मुस्लिम समभाव से पूजेगें। आगे चलकर गुरु नानक ने मानवता को जीवित रख किसी भी धर्म के प्रति ईष्या व नफरत तथा भेदभाव की दीवार को खड़ा करने से रोका। सभी को भले बनो, भला करो व एक हो जाओ की सीख दी। उन्होनें कहा भी है-
अलख अल्ला नूर उपाई
या कुदरत के सब बन्दे
एक नूर ते सब जग उपजिया
कौन भले ते कौन मन्दे

समकालीन भारत में दिव्य पुरुष गुरू नानक देव जी धर्म निरपेक्षता की जीती जागती तस्वीर थे, जिन्होनें बचपन से लेकर अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक मानवता की बिना किसी भेदभाव के सेवा कर उन्हें सही मार्ग दिखाकर अपने उपदेशों के जरिये मानव समाज में व्याप्त कुरीतियों व बुराइयों को दूर करने के लिए व सभी को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए चार बार पूरे देश का पैदल चलकर भ्रमण किया। 37000 मील तक वे देश के कोने-कोने व गांवों में गये जहाँ अत्याचार व दमन से पीडित जनता को उबार कर अत्याचारियों को परमार्थ के रास्ते पर लगाया।

गुरु नानक को उनके घर के लोगों ने उनकी धार्मिक प्रवृत्ति, एकान्तवास का विरोध करते हुए उन्हें संसारिकता से जोड़ना चाहा लेकिन उन्होनें रूहानी ज्ञान व परमार्थ की खोज में अपने आप को सदैव समर्पित किया। उन्होंने अपने जीवनकाल में धर्मग्रों का अध्ययन किया और उसके जरिये ही जीव जगत का कल्याण किया, वे सदा परमार्थी पुरूषों की संगत में रहते थे।

गुरू नानक को रूहानी अनुभव प्राप्त था। जिसके बारे में लिखित प्रमाण है। कहा जाता है कि प्रतिदिन प्रातः वे सुल्तानपुर के एक ओर बहने वाली बेई नदी में स्नान करने के बाद समीप के जंगलों में लोप हो गये। उन्हें दिव्य शक्ति परमेश्वर की दरगाह में ले गयी, जहाँ परमेश्वर ने उन्हें अमृत पान करवाया व ईश्वर की महिमा को संसार में फैलाने का हुक्म दिया। जब गुरुनानक तीन दिन बाद सुल्तानपुर लौटे तो तलवंडी के लोगों को आपार खुशी हुई वरना वे तो समझ बैठे थे कि नानक नदी में बह गये। वास्तविकता यह थी कि गुरु जी समाधि की अवस्था में अपने भीतर परमात्मा की प्राप्ति करते थे। उनकी आत्मा सुमरिन के समय एकाग्रता द्वारा शरीर में सिमट कर भीतर चली गयी व उनको रूहानी अनुभव प्राप्त हुआ। इसी रूहानियत की खुशबू को गुरु नानक ने संसार में बिखेरा।

ऐसा माना जाता है कि बेई नदी के किनारे आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद उनका जीवन दर्शन ही बदल गया। उन्होनें अपना घर-बार व संसारिकता सब कुछ छोड़ दी और अधिकांश समय प्रभु की भक्ति में लीन रहने लगे। गुरु नानक ने अपनी वाणियो से भी यह सिद्ध कर दिया कि मैंनें गुरूमुख की खोज में घर-बार छोडा चूंकि यह संसार तो नश्वर है यदि कोई टिकाऊ है तो वह है ईश्वर की भक्ति।

गुरु नानक सन् 1500 से 1520 तक सैयदपुर में रहे। इस बीच उन्होंने रूहानी उपदेश के लिए यात्राओं में समय व्यतीत किया। इन यात्राओं को गुरू साहिब की उदासियाँ का नाम दिया गया। उन्होनें अपनी यात्राओं के दौरान जैसा देश वैसा भेष भी अपनाया। उनकी यात्राओं में उनके दो सच्चे शिष्य भाई बाला, जो हिन्दू था व मरदाना जो मुसलमान था, साथ थे। गुरु नानक जहां भी जाते, वहां के वातावरण और आवश्यकताओं के अनुरूप पहनावा धारण कर लेते थे। दक्षिण भारत की यात्रा के समय गुरू नानक ने पैरो में खडाँऊ पहनी हुई थी व हाथ में छडी थाम रखी थी। सिर पर पगडी की भांति रस्सी लपेट रखी थी व मस्तक पर तिलक लगा रखा था। इसी तरह उत्तर भारत की यात्रा के दौरान गुरू साहब ने पैरों में चमड़े की जूती, सिर पर चमड़े की टोपी पहन रखी थी कमर में रस्सी लपेट माथे पर तिलक लगा रखा था। अपनी मक्का मदीना यात्रा के समय उन्होने मुसलमान हाजी का नीला लिबास पहन रखा था व हाथ में फकीरों का डण्डा व बगल में पोथी थी। गुरु नानक चारों दिशाओं में जींव जगत के कल्याण के लिए गये, जहां इन्हें यातनाएं भी सहनी पड़ी लेकिन उन्होनें हर जगह परमेश्वर के सच्चे ज्ञान की वाणी को ही उचारा, जिससे अज्ञानता का अंधेरा दूर हुआ और ज्ञान का प्रकाश फैला।

गुरु नानक देव जी की यह सीख थी कि जिसने आंतरिक ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे किसी बाहरी ज्ञान की आवश्यकता नहीं हैं। गुरु नानक ने अपने जीवन में दो महत्वपूर्ण प्रथाएं शुरू की जिनमें लंगर की व सेवा की प्रथाएं प्रमुख है। गुरु का लंगर, समानता, नम्रता और भ्रातृभाव का सूचक था क्योंकि लंगर की सेवा में अमीर-गरीब, जात-पात का कोई सवाल नही। सेवा में संगत के लिए पानी भरना, ढोना, ईधन लाना, आटा पीसना व भोजन बनाना, संगत में बरताना, भांडे साफ करना, झाडू देना शामिल है।

गुरु नानक साहब समूचे विश्व की यात्रा कर अपने अन्तिम समय में करतारपुर वापिस लौटे आये थे। उनके जीवन का अंतिम काल 1520 से 1536 तक का है। यह सैय्यदपुर की तबाहीं और बाबर द्वारा लूटमार से लेकर रावी नदी के किनारे करतारपुर गांव में एक गृहस्थ के वेश में सत्य के सच्चे मार्गदर्शक के रूप में गुजारा। गुरू साहिब ने अपने अन्तिम समय में रचडूर के भाई लहना जो उनका प्रेमी व सच्चा सिख था को अन्त में गुरु गद्दी सौंपी थी। इससे पूर्व अपने सच्चे साथी भाई मरदाना जिनकी उम्र 76 वर्ष की हो गयी थी। गुरु के सामने ही उसने देह त्यागी थी लेकिन त्यागने से पूर्व गुरु जी ने उससे पूछा कि तेरा अन्तिम संस्कार कैसे किया जाये तो उसने कहा जैसा आप उचित समझे। तब उससे मकबरा बनवाने की बात पूछी तो वह कह उठा जब सतगुरू मेरी रूह को शरीर रूपी कब्र से आजाद कर रहे है तो मेरे शरीर को पत्थरों में क्यों कैद करते है? अगले दिन प्रातः मरदाना परलोक सिधार गया और उसके शरीर को गुरूजी की देखरेख में रावी नदी में प्रवाहित कर दिया गया।

गुरु नानक साहब जब परलोक सिधारने लगे तो उन्होनें भाई लहना को अंगद के नाम सम्बोधित करते हुए कहा कि सब तरफ खबर भेज जो कि गुरुजी अन्तिम सफर की तैयारी में हैं। जब सारे परिवार के लोग यह सुनकर रोने लगे तो गुरू जी ने कहा "यहां किसी भी चीज का मान करना व्यर्थ हैं सच्चा रोना वह है जो उस परमात्मा के प्रेम का सूचक हो, अन्यथा रोने से कोई लाभ नहीं हैं जब शब्द कीर्तन समाप्त हो गया तो गुरू जी ने अपनी वाणी की पोथी गुरू अंगद साहब को सौंप दी। उस समय रात्रि का अन्तिम प्रहर था। गुरु जी ने इस समय हिन्दू व मुस्लिम शिष्यों से अपने-अपने फूल रखने का कहा व संगत से जपजी का पाठ-कीर्तन करने का हुक्म दिया। अन्तिम श्लोक समाप्त होते ही, संगत ने सच्चे पातशाह के चरणों में मत्था टेका। इस तरह 7 सितम्बर 1536 के दिन गुरू जी ने अपना पंच-भौतिक शरीर त्याग दिया। उनके ऊपर चढ़ाये फूल ताजे ही रहे, जिन्हें हिन्दू व मुस्लिम भाइयों ने बांट लिया। गुरु साहिबान भले ही इस संसार से ज्योति-ज्योत समा गये, लेकिन समूचे संसार के लिए विरासत स्वरूप अपनी रूहानी दात छोड़ गये जिसका लाभ उनके सच्चे अनुयायी सिख संगत के रूप में आज भी ले रहे हैं।
-चेतन चौहान,जोधपुर

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