मेरे भीतर
जो स्पंदित थी
एक दिन उस साँस को
बाहरी हवा क्या मिली बस
हरी होकर दूब सी बढ़ने लगी
जिसमें अदृश्य फूल खिलने लगी
बेपरवाह सी
कोमल सी नोंक पर
शब की हथेली से
टपकते हुए
नन्हीं बूँदे उसकी नोंक पर
जा बैठी
दिन के उजाले से
सारी रश्मियों को
भरकर अपने भीतर
समेटे हुए
वह भूल गई
कि उसे खो जाना है
किसी ने मंत्रमुग्ध हो
स्नेह की बौछार कर दी
बूँदे जरा ठिठक सी गई
पर इस....
प्रेम में डूबकर
इठलाना कौन न चाहे
बूँदे इठलाती रही
हवाएँ सहलाती रही
जैसे-जैसे वक्त बढ़ता रहा
बूँदे धीरे-धीरे अपना
अस्तित्व खोने लगी
प्रेम रुपी बूँद सूख चुकी थी
तो दूब का मर जाना भी तय था
और वह फूल जिसे किसी ने
नहीं देखा
उसका क्या मुरझाना
और क्या खिलना...
-सपना चन्द्रा,कहलगांव भागलपुर बिहार
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