Subscribe Us

अतिक्रमण (कहानी) -राजेन्द्र परदेसी

ठाकुर को देखते ही लखना ने कटकर निकल जाना चाहा, पर ठाकुर ने दूर से ही आवाज दी-‘लखना-अरे ओ लखना।’

‘क्या है सरकार’, लखना मन ही मन मुकद्दर को कोसते हुए पास आया।

‘क्यों रे! गेहूँ नहीं काटेगा क्या?’

‘कटेगा क्यों नहीं सरकार?’ लखना चापलूसी भरे लहजे में बोला।

‘तो जाकर भिखरिया से कह दे कि कल सारा परिवार कटनी पर लग जाए और सुन अपने भी घर सबको कह दे, जिससे कि सारे खेत जल्दी से कट जाएं, बरखा-बूंदी का क्या भरोसा?’

मौका अच्छा है, क्यों न भिखरिया के कंधे पर अपनी बंदूक रखकर वह दाग दें, यह सोचकर वह डरते-डरते सा बोला-‘सरकार भिखरिया से तो बात हुई थी पर.....’ उसने अपना वाक्य बीच में ही छोड़ दिया। ठाकुर के चेहरे पर अपने कहे की प्रतिक्रिया जानने हेतु नजरे चिपका दी।

‘पर क्या?’ ठाकुर के माथे पर लकीरें गहरी हो गईं।

‘पर वह तो कानून की बात कह रहा था सरकार।’

‘कानून, कैसा कानून?’

‘अब हम क्या जानें सरकार’ वह अपनी टांग खींचते हुए बोला-‘वह कह रहा था कि ठाकुर की अब तक जो बेगारी की सो की, पर अब वह राई-रत्ती भी नहीं करेगा। सरकार ने उसके लिए कानून बना दिया है।’

पल भर के लिए ठाकुर का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। बोले-‘कानून तो रोज कोई न कोई बनता-बिगड़ता है, पर क्या सब काम कानून से ही होता है।

‘यही तो भिखरिया से हमने भी कहा था सरकार....’

‘तो क्या बोला वह’

ठाकुर की दृढ़ता को देखकर लखना असमंजस में पड़ गया। उसने तो सोचा था कि कानून की बात सुनकर ठाकुर डर जाएंगे पर जब उनको चट्टान की तरह अडिग पाया तो अपनी बात की दिशा मोड़ते हुए बोला-‘वह तो कुछ नहीं बोला सरकार, लेकिन उसका बेटा सुंदरवा है न, वह ससुरा चार अक्षर पढ़ क्या गया कहने लगा कानून से होता क्यों नहीं है, सरकार मूर्ख थोड़े है जो बेकार में कानून बनाती है।’ ठाकुर को स्थिति की गंभीरता का आभास हो गया। उन्होंने मन ही मन सोचा कि अगर वह जल्दी हार मान लेंगे तो फिर हो चुकी खेत की कटनी, आज कोई काटने नहीं जाएगा तो कल बोने कौन जाएगा? यही सोचकर रोबदार लहजे में बोले-‘अच्छा चल ससुरे के घर, देखता हूँ कैसे नहीं करेगा खेत में कटनी।’

लखना भी तो यही चाहता था कि अगर ठाकुर भिखरिया की हनक में आ गए तो उसकी आड़ में वह भी मुक्त हो जाएगा, नहीं, तो फिर जनम भर ठाकुर की बेगारी तो उसे करनी ही है। ठाकुर जब भिखरिया के दुआर पर पहुँचे तो वह अपनी टूटी चारपाई पर लेटा था। लखना और ठाकुर को देखते ही वो सारा मामला समझ गया। चारपाई से उठते हुए भयमिश्रित आवाज में बोला- ‘सरकार, कैसे आना हुआ? बैठें-इतना कहकर उसने चारपाई की ओर संकेत कर दिया। क्रोध की अग्नि में जल रहे ठाकुर को जैसे आवाज सुनाई ही नहीं पड़ी वह अपनी ही झोंक में बोले- ‘क्यों रे भिखारी सुना है कि तू मेरा काम अब नहीं करेगा।’

‘नहीं सरकार हमने यह थोड़े ही कहा था।’

‘तो क्या कहा था?’ ठाकुर के भय से भिखरिया की आवाज नहीं निकल रही थी। तभी अंदर सब कुछ सुन रहा उसका लड़का सुंदर बाहर आते हुए बोला- ‘ठाकुर! काम के लिए इंकार नहीं है, पर अब हम बेगार नहीं करेंगे आपके यहाँ।’

‘बेगार.... कैसी बेगार?’ ठाकुर अनजान बनते हुए बोले,

‘यह बेगार ही तो है ठाकुर कि वर्षों से बिना मजूरी हम आपकी खेती की बोउनी, निकउनी और कटनी-मड़नी बिना मजूरी के करते आ रहे हैं, बापू ने बहिन के ब्याह में सिर्फ पांच हजार रूपया कर्ज लिया था। इतने बरस बीत बए पर आपका कर्ज ज्यों का त्यों बना ही है।’

‘रूपया वापस करेगा तभी तो चुकता होगा,’ फिर कुछ सोचकर ठाकुर बोले-‘लगता है तुम लोगों का विचार कर्ज चुकाने का अब नहीं है।’

‘बीस बरस से आपके यहाँ खट रहा हूँ, उसका कोई हिसाब है आपके पास।’ काफी देर से मौन खड़ा भिखरिया किसी अज्ञात शक्ति की प्रेरणा से ठाकुर के प्रश्न का उत्तर दे बैठा।

ठाकुर भी इतनी जल्दी हार मारने वाले नहीं थे। अपनी चाल चल बैठे-‘तो क्या उसका सूद नहीं बनता है।’

‘बीस बरस में तो आपका सूद ही भर पाया हूँ, मूल तो पड़ा ही है न।’ भिखरिया बोला, क्योंकि उसे अब कानून के कवच के साथ बेटे का भी सहारा जो मिल गया था।

‘इतने बरसों का सूद कम होता है क्या?’ ठाकुर ने पासा फेंका

‘आप चाहे जो समझो पर बिना मजूरी के काम पर अब नहीं आ पाऊंगा।’ डरते-डरते भिखरिया ने आखिर अपने दिल की बात ठाकुर से कह ही दी। लेकिन किसी अनजानी घटना की आशंका से उसका दिल अंदर ही अंदर कांप रहा था। ठाकुर को यह आभास हो गया कि अब पानी सिर से ऊपर चढ़ चुका है, लेकिन वह इस तरह हार मान लेंगे तो फिर गांव में रह चुके, और फिर बड़े-बड़े हाकिम मुख्तारों के साथ उठना-बैठना किस काम आएगा? दिमाग में यह विचार आया, तुरंत पैतरा बदल का बोले- ‘ठीक है भिखारी, जैसी तेरी मरजी-पर देखना तू खूद पछताएगा।’ इतना कहकर ठाकुर अपनी कोठी की ओर लौट पड़े।

दूसरे दिन सुबह-सुबह अपने दुआरे दरोगाजी को देख भिखरिया की हवा खिसक गई। उधर उसे देखते ही दरोगाजी की आँखें चढ़ गई। कुटिलता से मुस्कराते हुए बोले- ‘क्यों रे, तेरा ही नाम सुंदर है।’

‘नहीं सरकार, वह मेरा बेटा है।’ इतना कह तो दिया पर उसका सारा शरीर सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था।

‘कल ठाकुर साहब से तेरी बात हुई थी क्या?’

‘हुई थी सरकार’

‘तो तूने उनको क्या कह दिया।’

‘वह-वह-वह सरकार’ भिखरिया के मुख से बोल नहीं निकल रहा था।

‘वह-वह कुछ नहीं, जाकर वह जो कहें तुरंत कर दें, जल में रहकर मगर से बैर नहीं करते। वह तो बहुत नाराज थे। कह रहे थे कि किसी ऐसी दफा में बाप-बेटे को अंदर कर दें कि दो-चार साल जेल में सड़ते रहे- पर मैंने सोचा सीधी अंगुली से ही काम चल जाए तो इससे अच्छा क्या है... तो मेरी बात समझ गया न।’

‘जी...’ आगे के शब्द भिखरिया के गले में फंसकर रह गए, अगले दिन जब ठाकुर खेत में पहुँचे तो यह देखकर मन ही मन मुस्करा उठे कि भिखरिया और लखना का परिवार पूरी तन्मयता से खेत की कटनी में जुटा है। थोड़ी देर वह वहीं खड़े देखते रहे फिर मन ही मन बुदबुदाते हुए घर की ओर लौट पड़े। ‘ससुरे, बड़े आए थे कानून वाले, सरकारी कानून तो रोज ही बनता-बिगड़ता है। आखिर अपना भी तो कोई कानून होता है।’

-राजेन्द्र परदेसी, लखनऊ

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ