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मुश्किलों का दौर (कविता) -डाॅ रमेशचंद्र


मूश्किलों का दौर है तो क्या हुआ
नफरतों का शोर है तो क्या हुआ।

तुझे अपनी बुलंदी पर नाज़ करना है
खशहाल ये दुनिया- समाज करना है
जो कल न कर सका तो कोई बात नहीं
तुझे अपने बल पर वो आज करना है

हर कोई मुंहज़ोर है तो क्या हुआ
मुश्किलों का दौर है तो क्या हुआ।

अब मौत की संगीनों का माहौल है
इंसानियत का कैसा ये मखौल है
झूठी तारीफ़ों के पुल बन रहे हैं अब
यह जानते नहीं कि धरती गोल है

हिंसा का बहुत शोर है तो क्या हुआ
मुश्किलों का दौर है तो क्या हुआ।

बदलेगा मौसम तो बदलेगी हवाएं
वक्त बदलेगा तो बदलेगी फ़िज़ाएं
कौन कब तक जुल्म सहता आया है
एक दिन उसकी भी बदलेगी दशाएं

रात अभी घनघोर है तो क्या हुआ
मुश्किलों का दौर है तो क्या हुआ।

-डॉ रमेशचन्द्र, इंदौर

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