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खिल गया गेंदा लजाई रातरानी (गीत) -डॉ महेन्द्र अग्रवाल


खिल गया गेंदा लजाई रातरानी
मोगरे ने लिख दिये कुछ गंध के दिन

क्या करूं कुछ भी समझ आता नहीं है
आंख में उभरी नई कमजर्फ़ भाषा
सुर्ख गालों पर गुलाबों की छटा सी
और पलकों पर घटा की एक आशा
हो गया बेचैन कितना जानती हो?
चुभ रही हैं देह में भी सैकड़ों पिन

मालती सी रात महकी हैं निरंतर
रजनिगंधा जिस्म की मादक फुहारें
हारते हैं मन से अपने और अब तो
चाहते हो आपके आगे भी हारें
भाव बेकाबू हुए हैं देखते ही
जैसे तबले पर हुई तकधिन धनाधिन

डर रहा हूं सूर्य के नज़दीक आकर
आंख मेरी भर न आये सोचता हूं
आ गया हूं पास भी दूरी बनाकर
मन कहां पर सर छुपाये सोचता हूं
डंस न ले मेरी प्रतिष्ठा खौफ़ भी है
जुल्फ़ तेरी है बड़ी ज़हरीली नागिन

-डॉ महेन्द्र अग्रवाल, शिवपुरी 

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