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आज फिर भोर हुई (कविता)


आज फिर भोर हुई है ।
रात की काली घटा दूर हुई है ।।
सूरज की किरणों की लालीमां से धरती फिर सजी है ।
आकाश में सतरंगी फिर बिखरी है ।।

पक्षी घोंसले से निकल कर चहचहा रहे हैं ।
जैसे कोई नया उत्सव बना रहे हैं ।।
प्रकृति की हरियाली चारो और बिखरी है ।
ओस की बूंदे मोती सी चमकी है ।।

अंधेरे के बाद फिर उजाला आया है ।
नई आशा की किरण संग लाया है ।।
सुबह की चाय और अखबार ।
बच्चों के स्कूल और ऑफिस को तैयार ।।

कल फिर आज मैं परिवर्तित हो गया है ।
नया दिन आज फिर शुरू हो गया है ।।
वर्षा ,शरद हो या ग्रीष्म ऋतु, सबकी है सौगात ।
सृष्टि के प्रारंभ से ही भोर हो रही रात्रि के बाद ।।

धर्म -मजहब , अमीर -गरीब, छोटा -बड़ा ।
भोर ने नहीं कभी किसी को नापा तोला ।।
हर किसी के लिए यह आती है ।
मन में उत्साह का संचार लाती है ।।

चांद और सूरज की थोड़ी लुका छुपी हुई है ।
रात फिर चली गई और आज फिर भोर हुई है ।।

-डॉॅ. खुशबू बाफना, उज्जैन (म.प्र.)


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