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प्रेम (कविता)



तेरी सुधियों में विह्वल हो,
जब भी तुझको लिखना चाहा,
लिखा बहुत कुछ आगे पीछे,
यादें लिक्खीं... अनुभव लिक्खे,
जाने कितने पल छिन लिक्खे,
पर जब तुमको लिखना चाहा,
शब्द नहीं था एक भी ऐसा,
जिसमें बाँध उतारूँ तुमको,
गीत बना लूँ,,, गा लूँ तुमको।
तुम हो बिल्कुल प्रेम सरीखे,
रस जैसे घुलते जाते हो,
हाथ कलम के कब आते हो,
बस भीतर भीतर मुस्काऊँ,
रसानुभूति कैसे लिख पाऊँ।

-डॉ सुमन सुरभि, लखनऊ

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