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एक मां को


जिससे तुम्हारा बजूद है
उसने क्या नहीं सहा ?
क्या नहीं किया ?
और वह
आज भी वही कर रही है
जिससे तुम्हारा अहित न हो

वह सहने की पराकाष्टा है
ममत्व की जीती जागती प्रतिमूर्ति है
मंदिरों के अंदर पाषाण में
जब तुम खोजते हो ,
पूजते हो
एक मां को

तब उसे कितना मिलता है
सकून
तुम क्या जानोगे
पाषाण हृदय

पर वह
तुम्हारे अंदर के परिवर्तन को देख
हो जाती है प्रसन्न
पर
मंदिर के प्रांगण से
निकलते ही तुम भूल जाते हो
उस ममता की मूर्ति रूपी
मां को

जो तुम्हारे दरवाजे पर
असहाय हो
तुम्हारे जुल्मो सितम को सहती है
तुम्हारी मां होने के कारण
और
तुम पुत्र मद में
करते हो प्रहार पर प्रहार
कभी भावनाओं के
झुरमुट से
तो कभी और फाड् डालते हो
अपने अभिमानी नाख़ून से
ममता की आँचल को
जिसके छाँव तले
किया था स्तनपान

निर्लज्ज बनो ,
दम्भ करो
और
करो अट्टहास
अपनी क्रूरता पर
पर
अरे मूरख क्या पता नहीं
तुम भी
एक पुत्र के पिता हो
और कर रहे हो
अन्याय पर अन्याय

काल पता नहीं क्यों तुम्हे
समय दे रहा है
तुम्हारा साथ दे रहा है
पर तुम्हे पता है न
ये दोनों ही बड़े निर्दयी है
समय और काल
करते हैं न्याय
और
न्याय होने पर
तुम्हारे पास
आत्मग्लानि के सिवा
क्या बचेगा ?

-अरविंद कुमार पाठक'निष्काम',नागदा (म.प्र.)

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