Subscribe Us

कुनबे के विरुद्ध (कविता)


पत्थर जब बोलने लगे
तुम मौन हो कर सुनना
वह तुम्हारे ही
नादानी की बात करेगा
अपने बदले तेवर से
तुम्हे ही छलेगा

कहेगा
तुम छलिया हो ,
प्रपंची हो ,
परम स्वार्थी हो

क्योंकि
तुमने ही दिया है
उसे आकर ?
उस बेकार
अनगढ को ,
जो पहाड़ से
अलग हो
पहाड़ बनने का
भरता था दम्भ

और
एक तुम हो
जो गढ़ दिए
मढ़ दिए
कर लिए
भरोसा उस पर

सच मानो
जब भी मिला है
जुबान
किसी आम
या किसी
खास को

वह बोलता है
अपने ही कुनबे के विरुद्ध
क्योंकि
उसे दूसरे का
पता नहीं
जिसने उसे बनाया है

आम से खास
या हो गया है
खास से आम
वह तो उसी का
जड़ खोदेगा न

-अरविंद कुमार पाठक 'निष्काम', नागदा

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ