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सवेरे की तलाश में


कब हुआ सवेरा ?
तटिनी की मुहाना में गीत गाकर खंजन पक्षी
छींट गया स्वप्न संध्या का महकती धुन।

है अनागत
फूल पत्ते और मनोरम पुष्प कानन
आपका सत्कार आवभगत करता है
अब ना रहना दुःख 
और वेदनाओं में म्रियमाण

आओ साथ मिलकर गाये हम
भोर का प्रभात वंदन
जिसकी धुन में भावावेश की तरंग
एक मनमोहक एश्वर्य।

तुम मेरे पास रहो
न जाने उस पार में होंगे 
किस सौदागर का स्वप्न से लदा डोंगी

कब हुआ सबेरा !
क्या, खंजन पक्षियों की गीतों में ?

इस मायावी जगत में 
हम सभी है अकेले
आ मिलकर गाते है 
साथ साथ हम सवेरों वाली वंदना
ये सारी बातें कल से बन जाएंगे इतिहास
प्रकृति कवि की मनमोहक कहानी में
हम तुम है नियमबद्ध

कब होता है सवेरा ?
क्या होता है पक्षियों के गीतों में ?

मैं तो कहता हूँ !
महकती खुशबूदार शब्दों के 
सुबास में होता है सृष्टि का अन्वेषण
परमात्मिक चाहत की गरिमा में है 
सबेरे की तलाश
तभी तो आया हूँ 
शब्दों की इस मायावी मेले में

जरा सुनो तो कितना मनमोहन ये स्वर
प्रभात पक्षियों की गीत
जो हमेशा से मोहनीय।


मूल: दीपाली महंत गोस्वामी
अनुवाद: नाजु हातीकाकोति बरुआ

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