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शिवराज सिंह का एक विचार जो आशीषों में बदल गया


पुण्य सलिला नर्मदा के तट पर बसे एक छोटे से गांव का एक किशोर भोपाल में हायर सेकेण्डरी में अध्ययन कर रहा था। भोपाल की भव्य इमारतों और जगमगाती जिन्दगी के बीच उसे हरदम अपने गांव की हालत का ध्यान आता रहता। मूलत: अन्तर्मुखी यह छात्र या तो अपने कोर्स की किताबें पढ़ता रहता या फिर कुछ महापुरुषों की जीवनियों को पढऩे में अपना समय बिताता। न उसे मटरगश्ती करने का शौक था और न सिनेमा देखने या गप्पे लड़ाने का।

फिर यह किशोर हमीदिया कॉलेज का छात्र बना, कुछ मित्र बने, पर चर्चा का विषय वही महापुरुषों की जीवनियां और उनके विचार रहे। इसी क्रम में वह एक ऐसे छात्र संगठन से जुड़ा जो छात्रों के बीच देशभक्ति, राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के आदर्शों और सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत था। इसी संगठन में सक्रिय होते हुए यह किशोर युवक बना, पर साथ में उसकी सोच में परिपक्वता आयी। इस युवक ने इसी अवधि में स्वामी विवेकानंद और गुरु गोलवलकर के साहित्य के साथ-साथ श्रीमद्भगवद्गीता का पारायण, अध्ययन और गहन मनन किया। इस पुस्तक के मन पर स्वामी विवेकानंद और गुरु गोलवलकर के इन विचारों ने स्थायी वास कर लिया कि देश, समाज और दरिद्रों की सेवा ही ईश्वर की असली सेवा है।

विचार और कार्य दोनों ही साथ-साथ बढ़ते गये। इस युवक ने दर्शन शास्त्र की स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। भारतीय दर्शन के अध्ययन ने इस युवक के विचारों को एक संकल्प में परिवर्तित कर दिया। देश और समाज की सेवा ही ईश्वर की सेवा है, यह विचार उस युवक का संकल्प ही नहीं बना, जीवन का लक्ष्य बन गया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इस युवक ने एक राजनैतिक दल की युवा शाखा में प्रवेश किया और उस युवा शाखा के प्रदेशाध्यक्ष पद पर पहुंच गया। इस युवा के समर्थकों और प्रशंसकों की संख्या बढऩे लगी। भोपाल ही नहीं अपितु देश और प्रदेश के कई बड़े नगरों में वह आता जाता रहा, भव्य अट्टालिकाओं और दूधिया सफेद रोशनी से जगमगाती सड़कें, उन पर दौड़ती चमकदार कारें भी वह देखता रहा, पर उसके मन में बसी गांवों की वह तस्वीर और गहरी होती गई। गांव के खपरैल और फूंस के मकान, खेती में खून और पसीना बहाकर भी अपनी किस्मत को कोसते किसान, कभी अतिवृष्टि और बाढ़ से पीडि़त तो कभी सूखे की मार से अधमरे होते गांववासी और इस पर सबसे अधिक दु:खी वे जो अपनी लड़की की शादी के लिए रात-दिन चिंतातुर रहते। लड़की उनकी छाती पर पहाड़ की तरह बोझ बनती रही। लड़की की शादी के लिए कर्ज लेते लोग, फिर उस कर्ज को चुकाने के लिए जीवन भर पीड़ा भोगते लोग, ये सब दृश्य उस युवक की आंखों से कभी ओझल नहीं हो पाते थे। मजदूर और गरीब किसानों को यदि कोई ऐसा परिवार या वर मिल जाता जो दहेज नहीं लेना चाहता था, पर फिर भी विवाह में कुछ न कुछ खर्च करना ही होता है। लड़की-लड़के के कपड़े, एक-दो जेवर, दो-चार बर्तन फिर रिश्तेदारों को भोजन, इस सबकी व्यवस्था करना भी इन गरीबों के लिए हिमालय की चढ़ाई चढऩे से कम न था। दूसरी तरफ वह युवक शहरों में चांद-सूरज की रोशनी से बराबरी करते शादियों के मंडप देखता, भोजन के नाम पर विविध व्यंजनों के ढेर देखता, कारों के काफिलों की बारातें देखता, बैण्ड बाजों की गूंजती धुनें सुनता।

यह सब देखकर उसे गांवों के उन गरीब लोगों के चेहरे याद आ जाते, जिन्होंने अपनी बेटियों की हथेलियों पर हल्दी लगाने के लिए जमाने भर के पापड़ बेले थे। उसके मन में अक्सर यह विचार उठता कि क्या गरीबों की बेटियों के प्रति हमारा या हमारे समाज का कोई दायित्व नहीं है? कभी-कभी वह सुनता कि किसी गरीब की शादी में गांव के कुछ सम्पन्न और समृद्ध लोगों ने सहायता की तो उसका मन प्रसन्नता से भर जाता, वह सोचता कि काश हर गांव में यह परम्परा हो। बेटी किसी की भी हो, वह सारे गांव की बेटी मानी जाती है तो उसके विवाह के दायित्व को भी सारे गांव को निभाना चाहिए। पर इस विचार को मूर्त रूप कैसे मिले? यह भी एक बड़ा सवाल था।

गांव और गांव वालों की समस्याओं को समझने और उनके निराकरण के साधन खोजने की उस युवक की ललक बढ़ती ही गई। इसके लिए इस युवक ने नर्मदा अंचल के अनेक अंचलों में पद यात्रा की। एक राजनैतिक दल की युवा शाखा का प्रदेशाध्यक्ष होने के बाद भी यह युवक कभी किसी मंदिर के आंगन में सोया तो कभी किसी की दालान में। आदिवासियों के बीच ज्वार की रोटी खाई तो कभी दलिया खाकर ही पेट भर लिया। ग्रामीणों के बीच इस तरह के व्यवहार से इस युवक की अपने क्षेत्र में लोकप्रियता बढ़ती गई और 1990 के विधानसभा चुनावों में वह विधायक चुन लिया गया। फिर राजनैतिक परिस्थितियों ने ऐसी करवट ली कि दो वर्ष बाद ही वह युवक लोकसभा का सदस्य निर्वाचित हो गया।

दिल्ली के भव्य, विशाल और सर्वसुविधायुक्त संसद भवन में बैठते समय भी इस युवक के मन में ग्रामीणों की बदहाली और बाप की छाती पर पहाड़ सरीखे बोझ समझी जाने वाली बेटी याद रही। अब विचार को साकार करने का सही समय आ गया था। इस युवा सांसद ने अपने वेतन और भत्ते को एक कंजूस की तरह बचाना शुरू किया ताकि वह इस बचत से दो-चार कन्याओं के हाथ पीले कर सके। कुछ दिनों बाद ही इस युवा सांसद का विवाह हो गया। पत्नी को भी यह विचार पसंद आया। वेतन और भत्तों में बचत होने लगी, अज्ञात बेटियों के हाथों में हल्दी और मेंहदी लगाने के लिए।

फिर विचार साकार हुआ।

पहला सामूहिक विवाह हुआ। नवविवाहित सांसद और उनकी पत्नी ने कन्यादान किया, फिर तो यह वार्षिक कार्यक्रम हो गया। सांसद और उनकी पत्नी जिस गांव में जाते, वहां किसी गरीब पर बोझ बनी लड़कियों को जरूर तलाशते। तेईस वर्ष तक गरीब लड़कियों की शादियों का यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। सांसद गरीब घरों की बेटियों को तलाशने के लिए न तो जाति देखते थे और न धर्म। उनके द्वारा आयोजित सामूहिक विवाह समारोहों में जहां वैदिक मंत्रोच्चार के साथ बेटियों के पाणिग्रहण संस्कार होते थे तो काजी भी कुछ बेटियों के निकाह करते थे।

कोई डेढ़ साल पहले प्रदेश की हजारों बेटियों के भाग्य चमके और ये सांसद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। फिर किशोरावस्था और युवावस्था में आया विचार विराट स्वरूप में परिवर्तित हो गया। गरीब की बेटी का विवाह अब सरकार की जिम्मेदारी बन गया। एक विवाह के लिए सरकार पांच हजार रुपये देती है। इस सरकारी पहल से लोगों को पुराणों का यह कथन याद आ गया कि कन्यादान से नरक तक से मुक्ति मिलती है। सरकार द्वारा दिखाए गए मार्ग से समाज को भी प्रेरणा मिली और सैकड़ों लोग भी इस पुण्य-पुनीत कार्य में भागीदार बने और बन रहे हैं।

अब मुझे यह लिखने की आवश्यकता तो है नहीं कि गरीब की बेटी को अपनी बेटी, गांव की बेटी, समाज की बेटी और सरकार की बेटी समझने का विचार पालने वाला वह युवक कौन था? आज वही युवक मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री है। नाम लिखने की जरूरत नहीं है फिर भी पढ़ लीजिए- शिवराज सिंह चौहान।

एक अनुमान के अनुसार अब तक कन्यादान योजना के अंतर्गत मध्यप्रदेश में पचास हजार विवाह हो चुके हैं। कन्यादान का यह सिलसिला हर जिले में और हर तहसील में अनवरत चल रहा है। अब किसी गरीब बाप को अपनी बेटी के हाथ पीले करने की चिंता नहीं है।

अब कन्या बोझ नहीं रही। पीढिय़ों से जो बोझ हर गरीब आदमी अलग-अलग तरीके से ढो रहा था, उस बोझ को अब सरकार ने सम्मानपूर्वक अपने सिर-माथे पर रख लिया है। इस बोझ को उठाए सरकार चल रही है और उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं वे हजारों लोग जिनके चेहरों पर मुस्कान है और वाणी में अनेक आशीष और अनंत आशीर्वाद।

-दिनेश चंद्र वर्मा 
(विनायक फीचर्स)


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