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न्यूटन की गति : मेरी दुर्गति


मैं कभी-कभी बगीचे मे घूमने चला जाता हूँ। वहां कुछ देर चहल कद़मी करता हूं। फूलों और पेड़ों को देखता हूँ। हरियाली को निहारता हूं और बच्चों को वहां खेलता देख कर खुश होता हूं। बड़े बूढ़े भी बगीचे में आते हैं।कभी अपने मित्रों के साथ तो कभी अपने पोते पोतियों के साथ। बच्चों के झूले, फिसल पट्टी तथा बैलेंसिंग झूले आदि पर झूलते और खिलखिलाते बच्चे मुझे बड़े अच्छे लगते हैं।

मैं आज मैं बगीचे में आ गया। थोड़ी देर तक टहलता रहा। बगीचे की हरी हरी घास पर बैठने का मेरा मन हुआ तो मैं एक पेड़ के तने के सहारे बैठ गया। अभी कुछ ही देर के लिए मैं बैठा ही था कि अचानक पेड़ से एक फ़ल टपका और सीधा मेरे सिर पर गिरा। फल के सिर पर गिरते ही मेरे चक्षु के आगे चांद सितारे घूम गये। मैं चक्कर खा कर वहीं लुढ़क गया। कुछ लोगों ने मुझे इस कदर बैठे बैठे लुढ़कते देखा तो दौड़ कर मेरे पास आ गये और बोले - "क्या हुआ! क्या हुआ !! "

मैं तो इतना संज्ञाशून्य हो गया था कि उन्हें कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं था। लोगों ने मेरे आस पास देखा तो उनकी नज़र एक फल पर पड़ी। फल देख कर ही वे माज़रा समझ गये। बोले - "अरे ! ये तो न्यूटन की गति को प्राप्त हो गये। इन्हें इनके घर पहुंचाने की व्यवस्था करो। "

यह सुन तो सबने लिया, लेकिन पहुंचाता कौन.? न तो किसी ने मेरा घर देखा था और नही नाम जानते थे। और मैं बेहोश था, किसी को बताता तो वह मुझे घर पहुंचा भी देता, लेकिन मैं खुद बेखुदी में था। आखिर पानी मंगवाया गया और उसके छींटे मेरे चेहरे पर मारे गये तो मैं थोड़ा सा चौंक गया और सबको भौचक्का होकर देखने लगा। सब मुझे घूर घूर कर देखने लगे। आखिर एक ने पूछा - "भाई साहब, आपका नाम पता क्या है?"

बड़ी मुश्किल से मैंने आंखें खोली और कराहते हुए क़मर पकड़ कर कहा - " मैं क्या और मेरा नाम क्या ?"

वे भले आदमी चकराये और बोले -" हम आपको आपके घर छोड़ देते हैं..! "

मैंने कहा- " भाइयों, आप इतना कष्ट क्यों करते हैं मैं अब ठीक हूं और अपने घर चला जाऊंगा, ज़रा वह फ़ल तो देना, जिसके कारण मेरा सिर भन्ना गया था और मैं बेहोश हो गया था। "

मेरी बात सुन कर सबने राहत की सांस ली। दर्असल मुझे घर तो कोई ले जाने वाला नहीं था, महज़ औपचारिकता थी, जिसे वे सफलतापूर्वक निर्वाह कर गये थे। मैं उठने लगा तो दो जनों ने मेरे हाथ पकड़ कर और शेष ने मेरे भारी भरकम खाए -पीये शरीर को बड़ी मुश्किल से उठाया। मुझे उठा कर एक सबसे भले आदमी ने अपना पसीना पोंछते हुए कहा - "आप सचमुच अपने घर चले तो जाएंगे ?"

मैंने कहा - "आपको कोई शक़ है...! "

मेरी बात सुन कर पहले तो वह स़कपकाया फिर बोला - "मेरा मतल़ब था, यदि आप ठीक से चल नहीं पा रहे है तो मैं छोड़ देता..! "

मैंने उसे टालने की ग़रज़ से कहा - " नहीं मित्र, मैं ठीक हूं और यकीन करो मैं अपने घर पर सकुशल पहुंच जाऊंगा। आप अपना मोबाईल नंबर दे दो, मैं पहुंचने के बाद आपको मोबाईल पर बता दूंगा..। "

"अरे..नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं है। आपकी बात पर मुझे विश्वास है कि आप अपने घर तक पहुंच ही जाएंगे।" वह विचित्र दृष्टि से मुझे देखता हुआ वहां से चला गया। बाकी लोग पहले ही खिसक लिए थे।

मैंने फल को भरपूर दृष्टि से देखा और सोचने लगा यह फल ही है,जिसके बारे में श्रीकृष्ण ने कहा था कि फल की चिंता मत करो, केवल कर्म करो। "मैं उस फल को हाथ में लेकर पार्क से बाहर निकल आया। यह फल ही है जो आदमी को सफ़ल भी कर देता है और विफ़ल भी। देखे मेरे लिए यह क्या करता है ? मैं एक पैर से धीरे धीरे लंगड़ाता हुआ चला और तालाब के फुटपाथ पर आ गया। वहीं पर मेरी नज़र एक स्त्री पर पड़ी। मैंने उस स्त्री को देखा तो चकित होकर रह गया। वह हूबहू मेरी पत्नी की तरह दिख रही थी। उसके हाथ में झोला था और वह सब्जी वाली बाई से सब्जी ले रही थी। इस बीच मैंनू फ़ल को अपनी पेंट की ज़ेब में रख लिया।

मैं धीरे धीरे चलते हुए उसके पास से निकल कर अपने घर के रास्ते पर जा ही रहा था कि उस स्त्री ने मेरी ओर देखा तो बोली- " अरे, मैं घर पर कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी।"

यह सुन कर मैं हैरान हो गया। सोचने लगा यह स्त्री मुझे जानती है और मेरी प्रतीक्षा कर रही थी ।यह तो कमाल हो गया था। यह मेरी पत्नी जैसी लगती है, परंतु है तो नहीं .! मेरा मुंह खुला का खुला रह गया उसकी बात सुन कर। मैंने अचकचा कर कहा - " क्षमा करें मेडम..! मैंने आपको पहचाना नहीं ..!"

यह सुनना था कि उस स्त्री की भृकुटि तन गयी और ज़ोर से बोली. - " मुझे नहीं पहचाना..! "

यह सुन कर मेरे होश फाख्ता हो गये। वह सब्जी वाली बाई और दो-चार खड़े लोग यह हंगामा देखने के लिए नजदीक आकर खड़े हो गये। मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी।

वह स्त्री सब्जी को छोड़ कर मेरे बिलकुल नज़दीक आ कर बोली -" ज़रा फिर से तो कहना..कि मैंने तुम्हें नहीं पहचाना ..! "

मेरे सिर में अचानक दर्द होने लगा और मुझे सब कुछ गोल गोल घुमता दिखाई देने लगा। मैं एकदम से गिरने ही वाला था कि पास में दो खड़े लोगों ने मुझे संभाल लिया।

वह स्त्री घबरा गयी। उसने उन लोगों से कहा - " इन्हें ज़रा आटो में बिठाने में मदद कर दीजिए भाई साहब..! "

वे लोग बोले - " ये आपके कौन है ?"

वह बोली - " ये मेरे पति हैं। "

"लेकिन, ये तो कह रहे थे कि मैं आपको जानता नहीं हूं।" वे लोग बोले।

"इनका दिमाग़ ज़रा खिसक गया है, इसलिए कभी कभी ऐसा बोल देते हैं..! "उस स्त्री की बात मेरी तो बिलकुल भी समझ में नहीं आ रही थी।

मैं सचमुच अपने होश होते हुए हवास़ खो बैठा था। यानी कुछ भी समझने, करने और कहने की स्थिति में नहीं था। एक जाते हुए आटो को रोक कर उन लोगों ने मुझे बिठा दिया। वह स्त्री भी मुझे पकड़ कर बैठ गयी। सब्जी वाली और बाकी राहगीर यह सब मनभावन दृश्य देखते रहे।

मुझे वह स्त्री घर ले आई और अपने बहू बेटे को आवाज़ देकर बोली - "अपने पापा को पलंग पर ले जाओ, पता नहीं क्या हो गया है इन्हें, मुझे पहचानने से ही इंकार कर रहे हैं..! "

"अच्छा! फिर तो हमें भी शायद ही पहचाने..! " मुझे किसी की ऐसी आवाज़ सुनाई दी थी । मैं सुन और समझ तो रहा था, परंतु मेरी दूसरे अंगों की क्रियाशीलता बंद थी।

मुझे बिस्तर पर लिटा दिया गया। फिर तत्काल डाॅक्टर को बुलवा लिया गया। डाॅक्टर ने मेरा अच्छी तरह से परीक्षण किया। फिर बोले - " इनका दिमाग किसी चीज़ में ज्यादा उलझा रहता है। ये हरदम उसी के बारे में सोचते रहते हैं। यह स्थिति इनके लिए ठीक नहीं है। इन्हें उससे मुक्ति दिलानी पड़ेगी। "

वह स्त्री बोली -" डाॅ. साहब, ये पेशे से साईंस के प्रोफेसर रहे हैं। येन्यूटन को पढ़ाते रहे हैं। इन पर वैज्ञानिक न्यूटन का ज़बरदस्त प्रभाव है। ये खुद भी न्यूटन की तरह वैज्ञानिक बनना चाहते थे, परंतु खुशकिस्मती से प्रोफेसर होकर रह गये। "

डाॅक्टर चौंक कर बोला - "खुशकिस्मती से..! मैं कुछ समझा नहीं। "

वह स्त्री बोली - "डाॅक्टर साहब, ज़ब प्रोफेसर होकर इनका यह हाल है तो सोचिए ये वैज्ञानिक हो जाते तब क्या होते ?"

"ओह माय गाॅड! अच्छा तो यह बात है..! " डाॅक्टर के मुंह से आश्चर्य का यह भाव प्रकट ही हुआ था कि अचानक उनकी दृष्टि मेरी ज़ेब पर पड़ी।वे उस युवक से बोले - " ज़रा देखो तो क्या है इनकी पाॅकेट में। "

युवक ने ज़ेब में हाथ डाल कर निकाला तो वह फ़ल था। वह डाॅक्टर को दिखाते हुए बोला -" ये फ़ल है डाॅक्टर साहब !"

डाॅक्टर ने ध्यान से फल को देखा और फिर सोचने लगे। फिर अचानक बोल पड़े - "कहीं, इस फ़ल की वज़ह से तो इनकी याददाश्त चली तो नहीं गयी !"

सब आश्चर्य से डाॅक्टर की ओर देखने लगे। डाॅक्टर उनका मंतव्य समझ गये और बोले - "न्यूटन ने इसी तरह के एक फल को पेड़ से गिरते देख कर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की खोज की थी। फिर उसने गति के नियम बनाऐ थे। लगता है यह फल ही इनकी याददाश्त चली जाने का कारण है। इन्हें हास्पिटल में भर्ती करना पड़ेगा। "

यह सुनना था कि मेरी अचानक मुझे ज़ोर का झटका लगा। मैं उठ कर बैठ गया मेरी याददाश्त लौट आई थी। मैं अपने सामने डाॅक्टर और परिजनों को देख कर बोला - "मुझे हास्पिटल ले जाने की ज़रूरत नहीं है, मैं अब ठीक हूं।"

"तुम यदि ठीक हो तो मुझे बताओ कि मैं तुम्हारी कौन हूं. ?"

" तुम मेरी पत्नी हो.. और कौन. .?"

"अच्छा ! अब सब याद आ गया..!" पत्नी ने चिढ़ कर कहा। इतने में बेटा बोला -

"पापाजी, मैं कौन हूं. ?"

"तू मेरा बेटा है और कौन..? "

"और मैं कौन हूं पापाजी..? " मैंने पलटकर देखा तो मैं बोला - " मैं आपको नहीं पहचानता! आप कौन है मेडम !!"

"मैं आपकी बहू हूं पापाजी...! " रुंआसी होकर वह युवती बोली तो मैंने कहा - "मेरे बेटे की शादी ही नहीं हुई तो बहू कैसे हो गयी तुम..! "

बेटे और पत्नी ने झुंझला कर कहा -

"सचमुच इनकी तबीयत अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है, इन्हें हास्पिटल ही ले जाना पड़ेगा। चलो पकड़ो इन्हें।"

मुझे ज़बरदस्ती पकड़ कर हास्पिटल ले जाया गया। जहां बड़े बड़े इंजेक्शन लगा कर मेरा ईलाज किया जा रहा है। ईलाज किस बात का किया जा रहा है यह मुझे आज तक मालूम न हो सका।

-डॉ रमेशचन्द्र, इंदौर

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