दरवाजे की हर दस्तक पर जिन्हें आहट होती है बच्चों के घर आने की। हठ करके जो खिलाए, वो जिद्द होती है केवल माँ के बने खानें की। दिखा कर बाहरी गुस्सा, वो दुआओं की बारिश होती है पिता के तानों की । फिर क्यों बोझ लगते हैं वो, शायद ये जहरीली हवा है आज जमाने की। जीते जी ना बन सके सहारा उनका, श्राद्ध अब क्या जरूरत है पकवान खिलाने की? शब्द प्रेम के दो ही बहुत हैं, उन्हें तो आदत होती है सब कुछ भूल जाने की।
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