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करूणा-हीन बनता मानव


परिस्थिति से मनःस्थिति के प्रभावित होने की मान्यता का नाम भौतिकवाद है। आज भौतिकवादी जीवन दर्शन ने मानवीय सत्ता को पूरी तरह अपने शिकंजे में कस कर रखा है। इस लिए मानसिक स्तर को ऊंचा उठाने की आवश्यकता नहीं समझी जाती है। आज भौतिकवाद की आंधी अपने प्रवाह में सभी को उड़ाते चली जा रही है। भौतिकवाद के इस उद्दाम वेग का आधार है बुद्धिवाद! बुद्धि तो बढ़ी है लेकिन भाव संवेदनाएं एवं श्रृद्धा खत्म या क्षीण हो गयी है। उपभोगवादी संस्कृति ने इन्हें एक प्रकार से अमान्य कर दिया गया है। आज के युग का हलाहल है- अहंकार, स्वार्थ संकीर्णता एवं तृष्णा का व्यामोह। इसी हलाहल के प्रभाव से इतने समर्थ एवं सक्षम चिन्तनशील ऋषि की भूमिका निभाने वाले मनुष्य पाशविक एवं पैशाचिक प्रवृतियों में तल्लीन हो रहा है वह संवेदनहीन होकर अपनी सारी ऊर्जा को इसीमें खपा कर नष्ट कर रहा है।

नवयुग का सृजन भाव संवेदनाओं की पृष्ठ भूमि पर निर्भर है। भाव संवेदनाएं ही करूणा को जन्म देती है, और करूणा से उत्पन्न होती है अहिंसा, दया और अनुकम्पा! अहिंसा कोई थोपी हुयी या क्रय करके दी जाने वाली वस्तु नहीं है इसक सीधा सम्बन्ध आत्मीयता से है इसके लिए धर्म पर श्रृद्धा, आध्यात्म पर अटूट विश्वास तथा सद्गुरू के प्रति समर्पण का भाव जरूरी है। इसके लिए जरूरी है, मन में त्याग एवं तप की तीतिक्षा तथा दिल में परमार्थ भावना की बयार। लेकिन देखने में आता है आज मानव का लक्ष्य मात्र अपने स्वार्थ एवं निजी महत्वकाक्षांओं की पूर्ति तक सीमित हो गया है। तथा उसका उद्देश्य भी क्षुद्र बन गया है, एवं मानसिकता भी संकीर्ण बन कर रह गयी है। इस प्रकार की संकीर्णता एवं स्वार्थपरता को धीरे धीरे व्यक्तित्व का विनाश करने का अवसर मिल जाता है। ऐसे व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य केवल मात्र विलास, वैभव, एवं भोगा मान बैठते है और अपने आत्मोन्नति के मार्ग को अवरूद्ध कर लेते है। इन्हीं निकृष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसे व्यक्ति अपने शरीर, स्वस्थ्य मन एवं विचारों को तबाह करते दिखाई पड़ते है। क्षुद्र विचारों के निरन्तर प्रहारों से उनका मस्तिष्क शमशान की तरह मनोविचारों की जलती चिताओं से भरा रहता है। जिस जीवन को शान्ती सुख एवं आनन्द के साथ जिया जा सकता है उसी जीवन को वह दुःख का जखीरा बना लेते है। क्षुद्रता, संकीर्णता, स्वार्थपरता, व्यक्ति के मौलिक गुण नहीं है, मौलिक गुण है, करूणा, धृति, क्षमा, दया, अस्तेय, इन्द्रिय, संयम, सत्य, अहिंसा इत्यादि जो आन्तरिक प्रगति का आधार है जो सर्वभौम है, जिनसे “मानवता“ का जन्म हेाता है। लेकिन ये सभी तभी संम्भव है जब व्यक्ति उतकृष्ट विचारों का चिन्तन करें। आदर्श विचारों में ही व्यक्ति की आत्मा का बिम्ब, प्रतिबिम्ब होता है। विचार व्यक्ति की प्रवृति के अनुसार होते है क्योंकि जो जैसा सोचता है वह वैसा ही करता है। अतः अपनी सोच एवं विचारों को शुद्ध रखना जरूरी है। क्योंकि विचार ही जो व्यक्ति को करूणामयी बनाते है तथा चारित्र का निर्माण करते हैं।

आज व्यक्ति की लालसा एवं स्वार्थपरता ने उसे संकीर्ण बना दिया है वह अपनी सारी मर्यादाएं तोड कर अपने स्वार्थों को पूरी करना चाहता है, इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। यह सच है, उफनती हुयी नदी जब तक अपनी मर्यादाओं की सीमा में बहती है चहुं और हरियाली व खुशहाली लाती है परन्तु सीमा का अतिक्रमण करते ही चहुंओर बरबादी और विनाश का आलम छा जाता है। क्योंकि जब जब मर्यादाएं टूटी है विनाशकारी घटनाएं घटित हुयी है। आज युवा पीढ़ी अपनी सभी मर्यादाएं तोड़ कर हदे पार कर रही है। स्वतंत्रता के नाम पर वह स्वच्छन्द एवं उच्छृंकल बन रही है। भोगवाद ने उनका दृष्टिकोण बदल दिया है। उन्हें हर वस्तु चाहिए, आज नहीं, अभी चाहिए। इसको पाने के लिए हर तरह के समझौते भी कर लेते है। वे आज ही उसका भोग करना चाहते है। कल का धीरज उनमें नहीं है। इजीमनी की लालसा ने पुरूषार्थ को भी भुला दिया है। ऐसी परिस्थितियों उनके मन में करूणा के लिए स्थान कैसे संभव है।

अगर हम देखे कि मनुष्य के स्वार्थ ने क्या किया है? उसके अहंकार ने क्या किया है? तो स्पष्ट होता है स्वार्थ ने “मनुष्यता“ को निगल लिया है, इसने संवेदनाओं को निगल लिया है और यदि हमारे अन्दर अगर संवेदना जगती भी है तो हम डर के कारण, भय के कारण उसको दबा देते है। हमारी भावनाएं भय के बोझ के कारण दब गयी है। आज अरिहन्तों के वचन, सिद्धो की आवाज तथा गुरूभगवन्तो की देशना हमें समझाती है, जिनवानी हमें समझाती, आगम हमे समझाते, लेकिन ये सभी उपर से निकल जाते है। आज के दौर में संवेदित होने का, संवेदनशील एवं करूणामयी बनने का कोई स्थान नहीं। संवेदनाएं अब शब्दों में सिमट गयी है। केवल इसके शब्द रह गये है अर्थ नहीं। हृदय संवेदना बहुत गहरे शब्द है, और इसी कारण अगर हम देखे तो संसार में मनुष्यता, मानवता, जीवन का रस, एक तरह से सूख गया है, जीवन मुरझा गया है इन सब का केवल मात्र एक कारण है कि संवेदनाएं सिंचित नहीं है, संवेदनाओं में अभि-सिंचन नहीं है।

आज सुर्खियों में आता है आदमी करूणा हीन बन कर एक दूसरे से अनीति से फायदा लेने में जुटा हुआ है। इसके फायदे के लिए ही सबके अपने-अपने स्वार्थ है, अपने-अपने ढंग है अपनी रीति है। लेकिन यह जीवन का अपमान है; सम्मान नहीं है। आज हमारे हृदय केन्द्र को जाग्रत करने की आवश्यकता है। जीवन में सबको प्यार की तलाश है, सभी प्यार पाना चाहते है और आचारांग तो स्पष्ट बोलता है कोई भी जीव मरना नहीं चाहता है सबका अपना अपना अस्तित्व है, सब को जीने का अधिकार है, लेकिन आज हर काई शोषण करता है, गुलाम बनाता है अपने अधीन रखना चाहता है निर्बल एवं कमजोर को तुच्छ समझता है, उन पर चोट करता है, ये सभी हिंसा की श्रेणी में आते है। महावीर ने कहा सभी को अपना जीवन प्रिय है, उसके जीने में सहायक बनो, यदि आप जीवन दे नहीं सकते तो उसे मारने एवं मानसिक प्रताड़ना का हक भी नहीं है। “मित्ति में सव्व भूएसू वैरमं मज्जं न केणई“ अर्थात मेरे सभी मित्र है कोई शत्रु नहीं है, मेरा किसी के वैरभाव नहीं हैं। ऐसी भावना से मैत्री विकसित होती है। जब सभी जीव मित्र है तो वैर नहीं होगा और हिंसा होगी ही नहीं। इससे सभी के प्रति प्रेम भाव होगा। यह सच है जीवन संवेदना से सिंचित होता है किन्तु व्यक्ति इसे सिंचित करना ही नहीं चाहते, वह केवल सिंचित होना चाहते है, प्रेम पाना तो चाहते है लेकिन प्रेम करना नहीं चाहते। हम पुण्य करे बगैर, पुण्य का फल पाना चाहते है। शुभ कार्य करना नहीं चाहते है सत्कर्म करना नहीं चाहते किन्ु सत्कर्मों के परिणाम पाना चाहते है। हम पाना चाहते है कि हमारे साथ कुछ अच्छा अच्छा होता चला जाये लेकिन हम अच्छे कर्म करे, अच्छे भाव रखें व अच्छे विचार रखे इसकी आवश्यकता महसूस नहीं होती।

आज हम देखे है कि जीवन दुर्दशाग्रस्त है, जीवन संकट में है, मनुष्यता आज संकट में है तो वह इसलिए नहीं है कि कोई बड़ी आपदा आ गयी है, बल्कि कारण यह है कि आज संवेदनाएं एवं भावनाएं सूख गयी है, बिखर गयी है, विक्षुब्ध होकर शुष्क हो गयी है। दुनियां में संवेदनाएं सूखती जा रही है और इसलिए हमें दूसरों की यहां तक जीव जन्तुओं की पीड़ा एवं परेशानी भी नजर नहीं आती। कोराना महामारी इसी का परिणाम है। घटना दिल्ली की हो या जयपुर की सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति तड़पता रहता है, कितने ही राहगिर उसे देख कर निकल जाते है। कितने ही विडियो बनाकर वायरल कर देते है इस अवधि में वह तड़प कर दम भी तोड़ देता है लेकिन उपचार हेतु हास्पिटल लेकर नहीं जाते। यही असंवेदनशीलता है, जिसने इन्सानियत को खत्म कर दिया है।

संवेदनशीलता तो वह है, जो दूसरों की पीड़ा एवं परेशानी में अपने को देखे, उसे अपनी समझे, उसके दर्द में अपने स्वरूप को देखें। दूसरों का दुःख जब अपना लगने लगे तभी करूणा का जन्म होता है। संवेदनहीनता मानवता की पराकाष्ठा को पार गर गयी है, समाज को आज फिर से संवेदनशील व सृजनशीलता की आवश्यकता है, ऐसे में हमंें गुरूभगवन्तो सक्त की आवश्यकता महसूस होती है, जो समाज पर प्रेम का, एकता का, सरलता का, हृदय की विशालता का ज्ञान का, कौशल का, कर्तव्य परायणता का, करूणा का एवं संवेदनाओं का संचार कर सके। इन्हीं से समाज में फिर से “सत्यम् शिवं सुन्दरम“ के स्वर गुंजायमान हो सकेंगे तथा जन जन की पीड़ा को महसूस कर अपने भीतर की करूणा को प्रस्फटित कर अपनी मानवता अपनी “इन्सानियत“ को जिन्दा कर सकेगे जो प्राय लुप्त या मर चुकी है।

प्रभु महावीर ने कहा मैत्री और करूणा की परिपालना ही मानवता को श्रेष्ठ बनाती है। जैन दर्शन में आत्म चेतना को सम्यग्दर्शन की संज्ञा दी है तथा सम्यग्दर्शन के 5 लक्ष्यण-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और अस्तिक्य बताये गये है। जिस की आत्मा में अनुकम्पा का भाव नहीं करूणा की धारा नहीं, किसी पीड़ित और संतप्त आत्मा को देखकर सहानुभूति की स्पुरणा नहीं हेाती तो उसमें सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव भी नहीं हो सकता। सद्गुणों एवं गुणीजनों के प्रति प्रमोद भावना का गुण भी विकसित किया जाये जिससे दुसरों को हंसते देखकर स्वयं भी खुश हो सके। मानव चेतना की मुख्यधारा है, मैत्रीभाव, करूणाभाव और प्रमोदभाव। यही चेतना की विराटता है इस लिए अनुकम्पा और करूणा को सम्यग्दर्शन का मुख्य लक्षण माना है। अतः भीतर से करूणाहीनबनते मानव को करूणाशील एवं संवेदनाशीलता के लिए प्रयास करना है इसकी पात्रता के लिए सम्यग्दर्शन को समझना होगा। जिसका आधार जिनवाणी है, आगमवाणी है, गुरू के अमृतमयी प्रवचन है जिनके माध्यम से भीतर में दबी हुयी करूणा के स्रोत बहने लगे और चहुंओर प्रेम, मैत्री का वातावरण बन सके। इसीसी मानव करूणाशील एवं संवेदनशील बनकर ‘मानवता‘ एवं ‘इन्सानियत‘ का इतिहास पुनः सृजित कर सकता है।

-पदमचंद गांधी, भोपाल

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