प्रेम ही जीवन ,प्रेम समर्पण, प्रेम ही निश्छल भाव भरा। प्रेम के पथ जो चला पथिक वो, दुनिया से फिर नहीं डरा। प्रेम पाश में बंध गए वो जो, दुनिया से अनजान हुए। कृष्ण भक्ति में पागल जैसे, मीरा और रसखान हुए। प्रेम नशा है मदिरा जैसा, इसमें जो भी डूब गया। हर बंधन ,हर मोह से देखो, उसका नाता छूट गया। प्रीत करो तुम राधा जैसी, जो कृष्ण कंठ की माला थी। और तू उसका मदिरालय था और, वो तेरी मधुशाला थी। और तू उसका मदिरालय था और, वो तेरी मधुशाला थी।
ना जाने कब किसके मन में, प्रेम का अंकुर फूट पड़े। अपने प्रेम का लिए समर्पण, साक़ी हृदय द्वार खड़े। मोटी जैसे सीप के अंदर, खुद को यूँ महफ़ूज़ रखे। प्रेम भी ऐसे हृदय भीतर, प्रेम को ही महसूस करे। प्रेम नशे में जो भी डूबा, समझो वो भगवान हुआ। धर्म,अर्थ और काम ,क्रोध से , ऊपर वो इंसान हुआ। कोई किसीके दर्द में खुश है, किसीने प्रेम के प्याला पी। और तू उसका मदिरालय था और, वो तेरी मधुशाला थी। और तू उसका मदिरालय था और, वो तेरी मधुशाला थी।
छल-छल निश्छल बहते दोनों, नदियों जैसे ख़्वाब लिए। प्रेम डगर के उजले पथ पर, हाथों में यूँ हाथ लिए। राम ने जैसे हाथ सिया का, जीवन भर का साधा हो। और कान्हा के रोम-रोम में, बसी हुई बस राधा हो। प्रेम ना जाने जात-धरम और, प्रेम ना कोई छूत करे। प्रेम भाव में जो भी खोया, टूट के प्रेम अटूट करे। प्रेम को तेरे रग-रग भर गई, जाने कैसी बाला थी। और तू उसका मदिरालय था और, वो तेरी मधुशाला थी। और तू उसका मदिरालय था और, वो तेरी मधुशाला थी। -अम्बिका गर्ग 'अमृता',कालापीपल,ज़िला-शाजापुर (म.प्र.)
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