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खुशियों के मन की बात (गीत)


खुशियों से भी पूछो कोई,अच्छा किसके घर लगता है।
कब खुश होती है खुशियाॅं सब,अच्छा क्या मंजर लगता है।

खुशियाॅं बोली....
खुशियों के हैं रूप अनेकों,सबका अपना अलग तमाशा।
कभी खुशी नमकीन लगे है,कभी लगे है खुशी बताशा।
किसके घर कितना गाना है,वैसा ही गीत सुनाती है।
खुशियाॅं अपना असर दिखाकर,वापस अपने घर जाती है।
कभी-कभी तो कहीं-कहीं यह,सुख का पल नश्तर लगता है।
खुशियों से भी पूछो कोई,अच्छा किसके घर लगता है।

वक्त भाग्य कर्मों की गाथा,सुख-दुख नित्य उगाते हैं।
कम ज्यादा किसके घर जाना,मानव खुद उसे रचाते हैं।
मोल समझते खुशियों का वह,हर पल को आनंदित करते।
खुशियों का सम्मान बढ़ाते,सुखमय क्षण प्रतिपादित करते।
सत्कर्मीं के घर खुशियों का,अक्सर ही बिस्तर लगता है।
खुशियों से भी पूछो कोई,अच्छा किसके घर लगता है।

कहीं-कहीं तो मजबूरी में,काबू रखकर हम जाती है।
अहंकार लालच वाले घर,अपनी महिमा बिखराती है।
पाप हजारों करते कुछ तो,उनके घर रहना पड़ता है।
रही दुबक कर हम खुशियाॅं भी,ऐसे घर कहना पड़ता है।
सच बोलें तो वह पल हमको,सच बोलूॅं बदतर लगता है।
खुशियों से भी पूछो कोई,अच्छा किसके घर लगता है।

क्षणभंगुर सुख पाकर देखा,कुछ लोगों को सुख सार मिला।
क्षणिक खुशी पाकर लगता है,जैसे असीम उपहार मिला।
थोड़े में खुश हो जाते हैं,ऐसा घर हमको प्यारा है।
खुशियाॅं मिलकर सभी मनाते,ऐसा पल न्यारा लगता है।
भूख गरीबी सह खुश रहते,मंदिर-सा वह दर लगता है।
खुशियों से भी पूछो कोई,अच्छा किसके घर लगता है।

-कैलाश सोनी'सार्थक', नागदा (म.प्र.)

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