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सौंधी खुशबू


हमारी भारतीय संस्कृति की जड़े उस वटवृक्ष की तरह है जिसकी छाँव में हमारे आचार -विचार और व्यवहार पोषित और पल्लवित होते है। साथ ही संरक्षण पाते है। हर देश ,धर्म,हर भाषा ,और हर व्यक्ति का अपना एक स्वतंत्र प्रभाव होता है।एक अलग पहचान होती है। इन सब का मिला-जुला प्रभाव ही हमारे संस्कार और संस्कृति बनकर हमारा 'परिचय 'बन जाते है। और हमारे रग -रग में रच बस जाते है। ये हमारे अदृश्य बंधन है जो हम सबको एक -दूसरे से बांधे रखते है। साथ ही हमें अपने पाँव जमीं पर रखने कि प्रेरणा देते है।हमसब इसे अपनी अनमोल विरासत मानकर सहेजते है ,सम्हालते है और आने वाली पीढ़ी को सौंपते है।

आज ,समय की आंधी बहुत तेजी से अपना प्रभाव छोड़ते जा रही है। पाश्चात्य और आयातित संस्कृति ने हमारे संस्कारों की जड़ो को हिलाना शुरू कर दिया है। और हम बहुत कुछ खोते जा रहे है। अच्छी बातों का अनुकरण सराहनीय है ,पर अमर्यादित विचारों और कुसंस्कारों का अंधानुकरण सर्वथा गलत है। अंतत: हम दिग्भ्रमित ,होते ही जा रहे है।

यूँ तो हमारे जीवन में हिन्दू परंपरा के अनुसार सोलह संस्कारो का वर्णन है। पर जन्म ,विवाह और मृत्यु के सिवाय हममे से ज्यादातर लोगों को इनकी जानकारी है ही नहीं । जबकि हर संस्कार हमें बांधने का काम करता है। परिवार का समाज से सम्बन्ध और समाज का परिवार का सम्बन्ध लोगों के मिलने जुलने से ही बढ़ता है।

आज जब हम सुबह सोकर उठते है तो हमारा हाथ सबसे पहले मोबाईल पर जाता है और व्हाट्स अप पर ऊँगली दौड़ने लगती है। हमारी दिनचर्या गुड मॉर्निग और गुड नाईट के आधीन हो गयी है। सुबह उठकर हथेली के दर्शन करना ,धरती माँ को स्पर्श करना ,ईष्ट देवता को याद करना अब दकियानूसी बाते हो गयी है।कई वर्ष पूर्व बच्चों के स्कूल जाने के प्रथम दिन उनसे स्लेट पर श्री गणेशाय: नमः लिखवाकर अक्षराभ्यास कराया जाता था। आज जॉनी जॉनी यस पापा सीखा कर संस्कारों को आईना दिखा दिया जाता है। शर्मनाक स्थिति तब आ जाती है जब बच्चों के गलत हिंदी बोलने पर अभिभावक उसे सुधारने के बदले स्वयं ही हंसी उड़ने लगते है। और कच्ची पक्की पोयम पर ताली बजने लगते है। और इस तरह अप्रत्यक्ष ही गलत सीख दे देते है। जो बच्चो के कोमल मन पर गलत प्रभाव डालते है। इसी तरह पिछली पीढ़ियों को उनके जन्मदिन पर आयुष्मान भव: चिरंजीवी भव:जैसे वचनों का आशीर्वाद दिया जाता था । दादी के पोपले मुँह से ,और दादाजी के कांपते हाथो से मिलने वाली दुआओं की पूँजी अब ख़त्म हो चली है क्योकि पर अब कई घरो में बड़े बुजुर्गो का स्थान बदल गया है या तो वे वृद्धाश्रम में रहते है या फिर अकेले ही रहते है और अब संस्कारों का सागर सूखने लगा है.अब तो बड़े बड़े होटलों में केक पिज़्ज़ा, कोल्ड्रिंक पार्टी ही जन्मदिन का तोहफा माने जाने लगा है।

यह अजीब विडंबना है कि इस प्रकार संस्कारोंके अधोपतन के लिए हम स्वयं को दोषी कतई नहीं ठहरना चाहते बल्कि समाज ,शिक्षा ,माहौल ,वैश्वीकरण ,अंधी नक़ल पर अपनी कमियों का ठींकरा फोड़ते है। जबकि हर व्यक्ति की संस्कृति उसका स्वाभिमान होता है हम सब भाषणो में रोज कहते है।मगर हम सिर्फ भौतिक सुखसुविधाओ और पैसे को अपने संस्कारो से ऊँचा मानने की भूल कर रहे है मानवीय मूल्यों को और नैतिकता को तज कर शॉर्टकट अपनाकर आगे बढ़ने को ही अपना बड़प्पन समझ रहे है।

आज कही न कही हमारी मानसिकता कुंठित हो रही है। दोराहें पर खड़ा इंसान सिर्फ व्यवहारिक और व्यवसायिक मूल्यों को अपनाने के लिए क्यों विवश है ?दृढ़ शक्ति की कमी या नैतिक मूल्यों का पतन इसका जिम्मेदार तो नहीं ? या भौतिकवाद का आकर्षण इसके गिरने का कारण बन रहा है। क्यो .... मिटटी के दिये की रोशनी आज चीनी झालर से कम हो गयी ,? क्यों खीर -पूरी ,मालपूए की सोंधी मिठास से ज्यादा महत्त्व हम चाऊमीन और कोल्ड ड्रिंक को दे रहे है।

यह सब हमें ही सोचना है।

हम व्यर्थ ही नई पीढ़ी को कुसंस्कारी और असभ्य कह देते है ,दर हक़ीक़त हम खुद को नहीं जान पाते। हम भूल जाते है कि हम फूलों की क्यारी में नागफनी को बो रहे है जब उसके कांटे हमें चुभने लगते है तब हम इन नासूरों को केवल सहला ही पाते है उन्हें उखाड़ कर फैंकने का साहस नहीं कर पाते। हम भूल जाते है कि जमीन से जुड़ा इंसान ही सफलता की राहों में चल पाता है, मजबूत और गहरी नींव पर ही सुन्दर और भव्य ईमारत बन सकती है। मगर पिज़्ज़ा पास्ता की नई पीढ़ी तैयार करते करते हम अपना अभिमान ,अपनी संस्कृति ,अपने संस्कार सभी भूलते जा रहे है। कल जब हमारा अपना खून हमसे इन सवालों के जवाब मांगेगा तब हम उन्हें जवाब नहीं दे पायेंगे। और हमारी आत्मग्लानि का कोई विकल्प ही नहीं होगा।

-अर्चना नायडू, भोपाल (म.प्र.)

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4 टिप्पणियाँ

  1. निर्मूल होते संस्कृति से.... संस्कार के सागर सूख रहे...
    सारगर्भित लेख। बहुत-बहुत बधाई, दीदी

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  2. समय रहते सतर्क होने की चेतावनी देता है आपका आलेख।

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