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एक रुपया (लघुकथा)


स्वाति डॉ के क्लीनिक से निकल कर बस स्टैड पर आ खडी हुई सोचा अगर जल्दी बस मिल जाएगी तो बस से ही घर लौटेगी। बेकार में ऑटो में अधिक धन खर्चा करना उसके दिल ने गवारा न किया। किस्मत से उसे जल्द ही, घर तक के लिए सीधी बस मिल गई। बस में चढते ही उसने टिकट ले लिया और सीट पर जा बैठी।

बाहर की हरियाली को देखते हुए वो जाने किन ख़यालों में खो गई अचानक उसने सुना कंडक्टर किसी सवारी से कह रहा था-"एक रुपया और दो तभी किराए का पैसा पूरा होगा।यह सुनकर वह व्यक्ति परेशान होकर हाथ में लिए पैसों को फिर से गिनता हुआ बोला, "लेकिन मेरे पास तो सिर्फ चार रुपये ही है। कंडक्टर भी अड़ा रहा,"मैं क्या करूं,मुझे तो पूरे पैसे चाहिए।" वह व्यक्ति बस से उतरने के लिए दरवाज़ें की तरफ बढ़ा।जाने क्या सोचकर स्वाति ने अपने पर्स से एक रुपए का सिक्का निकाला और कंडक्टर को देते हुए कहा,"उनको टिकट दे दीजिए।" कंडक्टर ने उस व्यक्ति को पुकारा,"दे दीजिए चार रुपए और टिकट ले लीजिए।" उसने भी टिकट लिया और सीट पर बैठ गया।

अब स्वाति को अपना वो समय याद आया जब धन की कमी के कारण उसके पास बस का टिकट खरीदने के लिए एक-एक रुपए भी कमी होती थी । जिसकी वजह से वो दो-तीन किलोमीटर पैदल चल कर घर लौटती थी। आज एक रुपए की कमी के कारण एक व्यक्ति को बस से उतरना पड़ रहा था। सिर्फ एक रुपया...देखा जाए तो कुछ नहीं है पर उसके बिना भी कुछ नहीं है।

-सुजाता भट्टाचार्या, दिल्ली

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