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आई भू पर उषा कामिनी


सरस भोर की अलसाई आंखों के काजल सी धुलती गई यामिनी
स्वर्ण जाल की ओढ़ के चूनर आई भू पर उषा कामिनी

खिलती हुई पुष्प कलियों ने धरती का श्रृंगार किया
कल-कल करती नदियों ने भी सरगम का उपहार दिया

ओस में भीगी कलिकाओं ने इठला कर संपुट खोले
दूर कहीं देवालय के घंटों ने अमृत स्वर घोले

सकुचाई सी सूर्यमुखी की कलियों पर यौवन आया
जब अपनी आभा बिखेरता सप्तरथी बन ठन आया।

कम्पित बूंदों में झिलमिल सी करती आई भोर सुहानी
जीव जगत सब जाग उठे फिर करने दिनकर की अगवानी

-डाॅ. सुमन सुरभि, लखनऊ उत्तर प्रदेश

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