हिंदी और भारतीय भाषाओं का जो हश्र आजादी के बाद हुआ वह विचारणीय ही नहीं चिंताजनक भी है। स्वाधीनता के समय 99% से भी अधिक लोग मातृभाषा में पढ़ते थे और अब गाँव-गाँव तक और नर्सरी से ही अंग्रेजी माध्यम छा गया है। अगर हिंदी की बात करें तो हिंदी को केवल ललित साहित्य से जोड़ दिया गया है। आज भारत में, भारतीय भाषाओं में और शायद सबसे बढ़कर हिंदी में ऐसी स्थिति है कि साहित्य को भाषा का पर्याय मान लिया गया है। कमोबेश अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी यही हुआ। निश्चित रूप से किसी भाषा में ललित साहित्य का अपना एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन अन्य क्षेत्रों से कटकर अकेले चल कर भाषा कहाँ तक जा सकेगी? यूँ तो किसी भी क्षेत्र के ज्ञान-विज्ञान की सामग्री साहित्य में आती है, और आनी भी चाहिए, जैसे वैज्ञानिक साहित्य, धार्मिक साहित्य, विधि साहित्य, आर्थिक जगत का साहित्य आदि? लेकिन हमारे यहाँ साहित्य केवल ललित साहित्य तक सिमट तक रह गया। जिसके चलते भाषा के प्रयोग के अन्य सभी स्रोत जिनसे भाषा को खाद-पानी मिलता था एक – एक कर सूखते गए। अगर अपनी भाषाओं को बचाना और बढ़ाना है तो अब समय आ गया है कि इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करें। शासन-प्रशासन, शिक्षा-रोजगार, व्यापार-व्यवसाय, विधि और न्याय में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं को अपनाए बिना भाषाएँ आगे नहीं बढ़ सकेंगी। तेजी से सिकुड़ती हमारी भाषाओं यानी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सभी क्षेत्रों में इनका सही स्थान मिले और भाषा की ह्रास-प्रक्रिया को नियंत्रित कर प्रसार-पथ पर ले जाया जा सकेे।
कहा जाता है कि किसी भी भाषा का मीडिया उसके प्रचार-प्रसार और विकास का महत्वपूर्ण माध्यम होता है। लेकिन पिछले कुछ समय में समाचारपत्रों में संपादकों की शक्तियाँ कम होने, मालिकों और प्रबंधन का हस्तक्षेप बढ़ने जैसे कई कारणों के चलते मीडिया की भाषा में भी काफी परिवर्तन हुआ है। प्रबंधन और विपणन में अंग्रेजीदां वर्ग का वर्चस्व बढ़ने से या फिर अपने को प्रगतिशील व आधुनिक जताने के लिए प्रयासरत पत्रकारों के चलते भारतीय भाषाओं के अंग्रेजीकरण ने हिंदी व भारतीय भाषाओं को भारी नुकसान पहुंचाया है । नई अवधारणाओं के लिए आगत शब्दों को स्वीकारने तक तो ठीक था लेकिन चलते-फिरते जीवित व प्रचलित शब्दों को प्रचलन से बाहर कर उनके स्थान पर योजनाबद्ध रूप से अंग्रेजी शब्दों जबरन स्थापित करने और हिंदी व भारतीय भाषाओं में रोमन लिपि के प्रचलन को बढ़ावा देने की नीति भारतीय भाषाओं के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र जैसी प्रतीत होती है। इसके चलते हिंदी और भारतीय भाषाओं को काफी नुकसान पहुंचा है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो मैंने भारतीय भाषाओं के पत्रकारों और साहित्यकारों को कभी इसके खिलाफ आवाज उठाते नहीं सुना। प्रबंधन की नीति के खिलाफ न जा सकने की विवशता मीडियाकमियों की हो सकती है लेकिन लेखक, चिंतक और साहित्यकारों आदि की आत्मघाती चुप्पी कम चौंकानेवाली नहीं है। हिंदी और भारतीय भाषा के लिए गठित संस्थाओं का मौन समर्थन भी इसके लिए जिम्मेवार है। लेकिन किसी भी स्तर पर इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के प्रयास नहीं किए गए। इस विषय पर बहस होने के साथ-साथ शीघ्र उचित कदम उठाने की भी आवश्यकता है।
पिछले कुछ समय से हिंदी विभिन्न प्रयोजनों से लगातार कटते हुए मुख्यतः साहित्य और मनोरंजन में ही अपना अस्तित्व बनाए हुए है, हालांकि वहाँ भी अंग्रेजी के रंग में रंगती जा रही है। सामान्य व्यवहार में ललित साहित्य यानी कविता, कहानी, नाटक आदि को ही साहित्य माना जाता है। भाषा के नाम पर भी मुख्यतः यही साहित्य पढ़ा -पढ़ाया जाता है। ऐसा भी नहीं है कि विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी भाषा के संकुचन का प्रभाव हिंदी साहित्य पर न पड़ा हो। साहित्य को भी निरन्तर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पहली बात तो यह कि रचना के स्तर पर साहित्य में विशेषकर गद्य साहित्य यथा नाटक, एकांकी, निबंध, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का चलन काफी कम हुआ है पद्य में छंदबद्ध साहित्य भी क्रमशः कम हुआ है। अगर देखें तो आज साहित्य के नाम पर मुख्यतः कविता का वर्चस्व है। कविता के मंचों पर हास्य कविता का वर्चस्व है और हास्य कविता के नाम पर विशुद्ध चुटकुले परोसे जा रहे हैं, यहाँ तक कि अब चुटकुलों को तुकबद्ध करना भी आवश्यक नहीं समझा जाता। और फिर ये चुटकुले भी अकसर मौलिक नहीं होते, प्राय: सोशल मीडिया या पत्र-पत्रिकाओं के ये चुटकुले सार्वजनिक संपत्ति की तरह होते हैं, जो चाहे सुना दे।
जिस प्रकार राजनीति में अपराधीकरण के चलते आगे चलकर अपराधी सीधे राजनीति में उतरने लगे ठीक उसी प्रकार कवि सम्मेलनों के मंच पर हास्य कलाकारों और मिमिक्री वालों ने जगह बनानी शुरू कर दी है। गायन के असफल कलाकार भी इधर का रुख कर रहे हैं। देखा जाए तो कुछ गलत भी नहीं, जब कथित हास्य कवि चोरी के चुटकुले सुनाएँ तो हास्य कविता के नाम पर मौलिक हास्य आइटम या मिमिक्री भी गलत नहीं बल्कि बेहतर है चूंकि उसमें सृजनशीलता तो है। यदि इन्हें कविता न कहा जाए तो हमें इनसे कोई एतराज भी नहीं। मुंबई से प्रारंभ हुई यह लहर दलालों, नकली कवियों और हंसोड़ों के कंधों पर चढ़ कर आज देश भर में पसरती जा रही है। कथित साहित्य के ऐसे मंच हास्यास्पद होकर साहित्य को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।
अगर साहित्यिक कृतियों और रचनाओं के पठन-पाठन की और जनता से उसके जुड़ाव की बात करें तो यहाँ भी स्थिति कम शोचनीय नहीं है। अगर साहित्यिक कार्यक्रमों की बात की जाए तो आप पाएँगे कि इनमें अब प्रौढ़ और वृद्ध ही ज्यादा दिखेंगे शेष में भी दो-चार कॉलेज के हिंदी के विद्यार्थियों के अतिरिक्त कौन दिखता है ? रही पुस्तकों की बात तो आज भी साहित्य या साहित्य-समीक्षा से संबंधित जो पुस्तकें छपती हैं उनका क्या होता है ? सरकारी नियमों के अंतर्गत पुस्तकालयों के लिए खरीदी पुस्तकों की धूल नहीं उतर पाती । मुफ्त में वितरित साहित्यिक पुस्तकें भी अकसर बिना खुले ही रद्दी वाले तक पहुंच जाती हैं । साहित्यिक-विमर्श और समीक्षाएँ आदि तो यूँ भी मुख्यतः शिक्षकों या कुछ गंभीर विद्यार्थियों तक ही सीमित रहती हैं। यानी हिंदी के संकुचन के प्रभाव से यह क्षेत्र भी अछूता नहीं है।
जनभाषा के रूप में अपने महत्वपूर्ण स्थान के चलते आज भी मनोरंजन जगत में हिंदी की महत्वपूर्ण स्थिति है। हालांकि वहाँ भी काफी जमीन खिसक गई है और रोमन लिपि और अंग्रेजी ने हिंदी सिनेमा में भी अपनी अच्छी खासी पैठ बना ली है। हिंदी को भारी नुकसान पहुंचाया है। हिंदी फिल्मों के संवाद प्राय: रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। अनेक हिंदी फिल्मों के नाम अंग्रेजी में रखे जाते हैं भाषा में अंग्रेजी की घुसपैठ के तो कहने ही क्या? हिंदी सिनेमा के कार्यक्रमों का संचालन और कलाकारों आदि के वक्तव्य आदि तक भी प्रायः अंग्रेजी में ही होते हैं। स्थिति यह है कि हिंदी सिनेमा अपने व्यवसाय के लिए हिंदी का प्रयोग तो कर रहा है लेकिन इस व्यवसाय से जुड़े लोगों की पृष्ठभूमि भी अंग्रेजी की है जिसके चलते ये हिंदी को व्यावसायिक मजबूरी की तरह अपनाते हुए हिंदी के अंग्रेजीकरण की ओर ही अग्रसर दिखते हैं । अगर यह कहा जाए तो अनुचित न होगा कि जिस थाली में खा रहे हैं, उसी में छेद बना रहे हैं। ऐसी ही स्थितियाँ कमोबेश अन्य भारतीय भाषाओं के सिनेमा में भी हैं। कुल मिला कर यह कि यहाँ भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को गंभीर चुनौतियों का सामना कर पड़ रहा है।
लेकिन आज हिंदी प्रयोजन के अधिकांश क्षेत्रों से कटती जा रही है। यही नहीं भाषा-प्रौद्योगिकी के दौर में हिंदी के लिए भाषा-प्रौद्योगिकी की सुविधाओं, सूचनाओं और तत्संबंधी जागरूकता और इसके प्रयोग के अभाव के कारण भी हिंदी व भारतीय भाषाएँ पिछड़ती जा रही हैं। इंटरनेट पर भारत की महत्वपूर्ण उपस्थिति और विश्व में हिंदी भाषियों की बहुत बड़ी तादाद के बावजूद इंटरनेट पर हिंदी छोटी-छोटी भाषाओं से भी काफी पीछे है। हालाँकि ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ और ऐसी ही कई हिंदी सेवी संस्थाओं और हिंदी के लिए कार्यरत भाषा-प्रौद्योगिकीविदों व हिंदी सेवियों के सघन प्रयासों से इस दिशा में कुछ सुधार हुआ है और हिंदी की गाड़ी आगे बढ़ने लगी है। पर चिता का विषय यह है कि आज भी हिंदी-साहित्य व शिक्षण से जुड़ा एक बड़ा वर्ग इस ओर अग्रसर नहीं हो रहा है। उनके लिए आज भी हिंदी का मतलब केवल हिंदी साहित्य है। आज भी स्कूल-कॉलेज आदि में भारतीय भाषाओं के लिए कंप्यूटर, मोबाइल आदि उपकरणों पर भारतीय भाषाओं में कार्य की जानकारी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है। हालाँकि यहाँ भी नवचेतना का संचार हुआ है और प्रगतिशील साहित्यकार व शिक्षक हिंदी के लिए भाषा-प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए या उसकी जागरूकता व प्रसार के लिए अग्रसर हुए हैं लेकिन यह गति अब भी काफी धीमी है।
प्रश्न केवल हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं का नहीं है। दुनिया की जितनी भी भाषाएँ हैं उनकी उत्पत्ति का मूल कारण व्यवहार हेतु संवाद की आवश्यकताएँ ही रही हैं । सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ और लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं के अनुरूप कालान्तर में लिपि और भाषा के विभिन्न प्रयोजनमूलक स्वरूपों का और विकास होता गया। यह कहा जा सकता है कि भाषा मानवीय आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त भाषिक व्यवस्था है। भाषा जिस प्रयोजन का माध्यम बनती है उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप शब्द, पद, रूप, शैली आदि सहित विभिन्न भाषिक विशेषताओं का विकास करती जाती है। अनेक शब्दों को विशेष अर्थ में रूढ़ करती है प्रयोजन विशेष के पारिभाषिक शब्द भी गढ़ती है। इन विभिन्न रूपों में प्रारंभ में सामान्य व्यवहार के स्वरूप के अतिरिक्त वाणिज्य-व्यापार, ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा - रोजगार और भावाभिव्यक्ति के लिए साहित्यिक रूप का विकास होता है। यही भाषा के विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है। भाषा-विज्ञानी इस प्रक्रिया का और बेहतर व सूक्ष्म विश्लेषण भी कर सकते हैं ।
कहा गया है, भूखे भजन न होय गोपाला। मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताओं के पश्चात ही साहित्य की बात आती है। यदि इतिहास में झांक कर देखें तो हम पाते हैं कि भाषाओं के प्रसार और विकास में शिक्षा - रोजगार और व्यापार – व्यवसाय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही वजह रही कि विदेशी शासकों द्वारा भारत में लायी गई अनजान भाषाओं ने भारत में अपना महत्वपूर्ण स्थान इसलिए बनाया क्योंकि अपने समय में उन्होंने अपनी भाषाओं को पेट की और समृद्धि भाषा बनाया। अपनी भाषाओं के प्रति लगाव होने के बावजूद लोगों ने शिक्षा-रोजगार, व्यापार-वाणिज्य तथा ज्ञान-विज्ञान हेतु इन भाषाओं को अपनाया। लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात, विशेषकर पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में तमाम क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व इतनी तेजी से बढ़ा कि गाँव-गाँव तक और शैशवावस्था से ही अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा और सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी का प्रयोग होने लगा। जिसके चलते स्थिति यह है कि नई पीढ़ियाँ अपनी भाषाओं से निरन्तर कटती जा रही हैं।
स्पष्टतः भाषा केवल संवाद का माध्यम मात्र नहीं है, वह केवल मनोरंजन और साहित्य के माध्यम तक भी सीमित नहीं है । भाषा शिक्षा – रोजगार, ज्ञान-विज्ञान, उद्योग-सेवा, व्यापार-व्यवसाय आदि का माध्यम भी होती है। इस प्रकार अब भाषा जीवन-यापन, समृद्धि, सम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम भी है जिसमें आर्थिक पक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका है। इतिहास गवाह है कि इनसे कटने पर भाषा का प्रयोग-प्रसार और उसका विकास संभव नहीं। हिंदी और भारतीय भाषाओं में इन्हीं कारणों से संकट गहरा रहा है। यदि किसी वृक्ष की जड़ों को पोषण न मिले तो निश्चय ही वृक्ष सूखने लगेगा, पत्तियाँ मुरझाने लगेंगी, तो फिर ऐसे में उस पर पुष्प भी कब तक खिल सकेंगे ? मेरा यह मानना है कि भाषा के आर्थिक स्रोत खाद-पानी की तरह हैं जिनसे पौधे को पोषण मिलता है । ज्ञान-विज्ञान, उद्योग-सेवा, व्यापार-व्यवसाय आदि इसकी शाखाएँ हैं जिन पर कला-संस्कृति पल्लवित होती है, समृद्धि के फल प्राप्त होते हैं और साहित्य के पुष्प खिलते हैं। यदि वृक्ष को पोषण ही न मिलेगा, शाखाएं सूखने लगेंगी तो कला-संस्कृति कब तक पल्लवित होगी ? साहित्य के पुष्प कब तक खिलेंगे ? जड़ें सूख रही हों और हम केवल पतियों और पुष्पों को जल दे तो इससे न तो वृक्ष रहेगा और न ही पत्तियाँ और न ही पुष्प।
लेकिन दुर्भाग्यवश हिंदी और भारतीय भाषाओं के मामले में यही होता रहा है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के आर्थिक स्रोत सूखते चले गए। ज्ञान-विज्ञान, उद्योग-सेवा, व्यापार-व्यवसाय आदि की विभिन्न शाखाएँ सूखती चली गईं और हम पत्तियों और पुष्पों को साहित्य अकादमियों आदि की कुछ फुहारों से सींचते रहे। जल के सभी स्रोत अंग्रेजी की तरफ मोड़ दिए गए और हम फुहारों का आनन्द लेते रहे। नतीजा हमारे सामने है। भाषा के नाम पर अब मनोरंजन और साहित्य ही दिखता है। उसमें भी ज्यादातर सतही और अब फूहड़ तुकबंदियों का समावेश है । अच्छे साहित्यकार या तो बचे नहीं जो बचे भी तो साहित्यिक मंचों पर उनकी वैसी पूछ नहीं। और यह हो भी कैसे जब आर्थिक स्रोत सूख गए तो नई पीढ़ियों ने जीवन-यापन के लिए अंग्रेजी का रुख किया तो लोगों को अपनी भाषाओं से नाता ही टूट गया। साहित्य को और साहित्य के मर्म को समझने वाले भी सिमटते जा रहे हैं। हिंदी या भारतीय-भाषाओं में शिक्षण की बात तो लगभग समाप्त हो चुकी है । अब तो हिंदी या मातृभाषा शिक्षण को भी औपचारिकता के लिए पढ़ा जाने लगा है। बड़ी संख्या में लोग इनके स्थान पर भी फ्रेंच और जर्मन पढ़वाने लगे हैं। आगे-आगे क्या होने वाला है अनुमान लगाया जा सकता है।
स्नातक व स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी और भारतीय भाषाओं की माँग तेजी से घटी है। संख्या घटने के चलते हिंदी विभाग बंद किए जाने की स्थितियाँ भी सामने आने लगी हैं। भारतीय-भाषा अध्ययन में अब गंभीर विद्यार्थियों की कमी महसूस की जाने लगी है। अब ज्यादातर वे विद्यार्थी आने लगे हैं जिन्हें किसी अन्य विषय में दाखिला नहीं मिलता या जो शिक्षा की औपचारिकता पूरी करने मैं लगे हैं। पर इस समस्या के लिए कोई सजग दिखाई नहीं देता । शिक्षा जगत में भी इस ओर जागरूकता का अभाव है। ज्यादातर भाषा-कर्मी भाषा के लिए उपलब्ध सूचना-प्रौद्योगिकी से अनभिज्ञ हैं। राजभाषा संबंधी प्रावधान केवल सरकारी क्षेत्र तक सिमटे हैं और उनमें भी बाध्यता के अभाव में औपचारिकताओं की अट्टालिकाएं बनती दिखती हैं या फिर मूल उद्देश्य से हटकर कविता-कहानी और गीत-संगीत के कार्यक्रमों में डूबे दिखते हैं। भाषा के विकास की ज्यादातर संस्थाएँ केवल कविता-कहानी की बंसी बजा रही हैं। सरकारी स्तर पर देश भर में भाषा की तमाम अकादमियाँ भी साहित्य तक सिमटी हैं। कविता-कहानी आदि के क्षेत्र में कार्य के लिए सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर अनेक पुरस्कार व प्रोत्साहन योजनाएं हैं लेकिन भाषा प्रसार के लिए न तो सोच है, न दिशा है, न योजनाएँ हैं और न ही किसी प्रकार की प्रोत्साहन योजनाएँ है। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि ये अकादमियाँ केवल साहित्य की नहीं बल्कि भाषा की अकादमियाँ हों जो भाषा के चहुंमुखी विकास और विशेषकर विभिन्न क्षेत्रों में भाषा की माँग और प्रसार पर ध्यान दें। इसी प्रकार सभी योजनाएँ जो केवल साहित्य तक सिमटी हैं उनका भी भाषा प्रसार के क्षेत्र में विस्तार किया जाए और भाषा के प्रसार को प्राथमिकता देते हुए युद्ध स्तर पर कार्य किया जाए ।
हिंदी और भारतीय भाषाओं के मामले में पानी खतरे के निशान को कब का पार कर चुका है । भाषा डूबी तो अपने साथ साहित्य ही नहीं हजारों वर्षों प्राचीन संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, हजारों वर्षों से संजोया ज्ञान-विज्ञान सब बहा कर ले जाएगी। चूंकि राष्ट्रीयता का मूल आधार संस्कृति होती है इसलिए संस्कृति नष्ट होगी तो राष्ट्रीयता पर प्रभाव न पड़े यह संभव नहीं। अभी नहीं तो कभी नहीं की स्थिति हमारे सामने हैं। कहीं बहुत देर न हो जाए, जागने, उठ खड़े हो कर स्थिति का सामना करने वक्त है।
हालांकि अब वर्तमान सरकार नई शिक्षा नीति के माध्यम से जिस प्रकार मातृभाषा में शिक्षा और इंजीनियरिंग और चिकित्सा आदि की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में करवाने के लिए प्रयासरत है, इससे आशा जगती है। लेकिन तमाम भारतीय भाषा प्रेमियों को इस कार्य में अपना अधिकाधिक योगदान देना चाहिए। शासन-प्रशासन और न्याय आदि क्षेत्रों में भी ईमानदारी और पूरी शक्ति से संघ की राजभाषा हिंदी और राज्यों के स्तर पर राज्यों की भाषाओं को अपनाने और आगे बढ़ाने के साथ-साथ मातृभाषा माध्यम के लिए आवाज़ उठाने की आवश्यकता है।
इसके पहले कि ओर देर हो जाए, भाषा सहित ज्ञान-विज्ञान व विभिन्न व्यवसायों और न्यायतंत्र आदि से जुड़े सभी क्षेत्रों के विद्वानों और चितंकों को चाहिए कि वे इस संबंध में विचार-मंथन करते हुए हिंदी व भारतीय भाषाओं के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयास करें ताकि इनके प्रवाह का मार्ग प्रशस्त हो सके।
डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन,
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