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वर्षा वार्ष्णेय
आज भी याद आता है
जो छूट गया है गाँव
आज भी नजर आता है
होलों को जलती आग में
भूनकर सबके साथ खाना
वो गेहूँ की बाल के साथ
खुद भी मस्ती में झूम जाना
लगता था सारा गाँव ही हो
जैसे बाबा का बसेरा
वो उँगलियों की कोर से
घूँघट में से मुखड़ा दिखाना
बरसों बाद भी सबका
अपार स्नेह का मिलना
वो जा रही है देखो फलाने
बेटे की सुंदर सी गुड़िया
सुनकर प्यार के मीठे बोल
दिल में खुशी का छा जाना
जाने क्यों आज भी रुलाता है
वो गाँव की ठंडी बयार का आना
वो लहलहाते पेड़ और बालियां
वो अम्मा का घर के चबूतरे पर
मीठी बातों के साथ बीज नुकाना
आज भी याद आता है चूल्हे के
सामने बैठकर गर्म रोटी खाना
खो गया आज जाने कहाँ, कैसे
खुशियों का वो बेजोड़ जमाना
जहाँ थी सिर्फ परिवार के साथ
मिल बैठने की धुन नाचना गाना
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