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अमेरिका में ध्वस्त होता लोकतंत्र

रंजना मिश्रा
डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के 45 वें राष्ट्रपति हैं यानी अमेरिकी राष्ट्रपति की परंपरा का 45 वां नाम। वह परंपरा जिसकी शुरुआत 231 वर्ष पूर्व 30 अप्रैल 1789 को हुई थी। जब न्यूयॉर्क स्थित फेडरल हॉल की बॉलकनी में खड़े होकर एक महान इंसान ने अमेरिका के पहले राष्ट्रपति की शपथ ली थी, जिनका नाम था जॉर्ज वाशिंगटन। जॉर्ज वाशिंगटन की महानता उनके पद में न होकर, उनके आचरण, उनकी मर्यादा में थी। उन्हें पता था कि वह एक नए आजाद हुए देश के पहले राष्ट्रपति हैं और बतौर राष्ट्रपति उनका हर आचरण अमेरिकी लोकतंत्र, इसके राष्ट्राध्यक्षों के लिए मिसाल बनेगा। वाशिंगटन ने इस जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाया। 1796 में जब राष्ट्रपति के रूप में उनके दो कार्यकाल पूरे हो गए तो उन्होंने यह कहते हुए कि दो कार्यकाल बहुत हैं, अपना पद छोड़ दिया था और ऐसा करके उन्होंने एक स्वस्थ परंपरा कायम की थी। वह परंपरा जो लोकतंत्र पर एक व्यक्ति को हावी होने से रोकती है, लोकतंत्र को तानाशाही बनने से रोकती है। पावर रहते हुए भी वाशिंगटन ने सत्ता तजने की यह मिसाल राष्ट्रपति बनने के पहले भी दिखाई थी, जब अमेरिकी कालोनियां अपनी आजादी के लिए ब्रिटेन से युद्ध लड़ रही थीं। इस युद्ध में अमेरिका की कॉन्टिनेंटल आर्मी के कमांडर इन चीफ थे वाशिंगटन। आजादी की लड़ाई जीतने के बाद वाशिंगटन भी आसानी से सत्ता हथिया सकते थे किंतु वो आर्मी लीडर से इस्तीफा देकर वापस खेती करने लौट गए और वो सत्ता में तब आए जब कांग्रेस ने एक दूत के हाथों उनके पास संदेशा भिजवाया कि आइए राष्ट्रपति का पद स्वीकार कीजिए, हमने सर्वसम्मति से आपको इस आजाद मुल्क का पहला राष्ट्रपति चुना है। राष्ट्र निर्माण के लिए ऐसी ही स्वस्थ परंपराओं और स्वच्छ नीयत की आवश्यकता होती है। इन परंपराओं के चलते अपनी तमाम कमियों और आलोचनाओं के बावजूद अमेरिकी लोकतंत्र महान माना जाता है। इस देश की एक स्वस्थ परंपरा रही है, सत्ता का हस्तांतरण। पिछले लगभग ढाई सदी से हर 4 या 8 साल बाद वहां शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता का हस्तांतरण होता आ रहा है। किंतु 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता के लालच में इस परंपरा को ध्वस्त कर के रख दिया है।
जो अमेरिका खुद को दुनिया का सबसे महान और सबसे पुराना लोकतंत्र बताकर इतराता है, उसी अमेरिका में लोकतंत्र की गरिमा को मिट्टी में मिला दिया गया। दुनिया में लोकतंत्र पर उपदेश देने वाले अमेरिका में लोकतंत्र के विरुद्ध ही युद्ध छेड़ दिया गया और वह भी इसलिए कि ट्रंप को हार स्वीकार नहीं थी। ट्रंप को जो बाइडेन के खिलाफ 70 इलेक्टोरल सीटें कम मिली थीं और इसलिए अमेरिका में संसद ही हाईजैक कर ली गई। हिंसा, आगजनी, डकैती, गोलीबारी तोड़फोड़, खून-खराबा, हमला ये सब अमेरिका की सड़कों पर नहीं बल्कि अमेरिका की संसद कैपिटल हिल में हो रहा था। जो बहुत ही शर्मनाक है।अमेरिका शायद भूल गया है कि लोकतंत्र वास्तव में वैचारिक असहमति, वाद-विवाद, आरोप-प्रत्यारोप और वैचारिक विरोध का नाम है, न कि विद्रोह का। लोकतंत्र लोक से बनता है किंतु जब लोक भीड़ बन जाता है तो लोकतंत्र भी भीड़ तंत्र में बदल जाता है।
4 साल पहले जब डोनाल्ड ट्रंप ने कैपिटल हिल में राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी तो अपने देश से वादा किया था कि वह अमेरिकी सियासत में बड़े बदलाव लाएंगे पर अब उनका कार्यकाल हंगामे और हिंसा के साथ खत्म हो रहा है। अमेरिकी लोकतंत्र में 6 जनवरी 2021 का दिन इतिहास का सबसे कलंकित दिन बन गया है क्योंकि इस दिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों ने अमेरिका की संसद कैपिटल हिल में घुसपैठ करके वहां जमकर बवाल किया, सभी सीनेटरों को बाहर निकाल संसद की इमारत पर कब्जा कर लिया। स्थिति गंभीर होने पर सुरक्षाबलों ने फायरिंग की जिससे 4 लोगों की मौत तक हो गई। अमेरिकी राष्ट्रपति माइक पेंस ने इस दिन को देश के लोकतांत्रिक इतिहास का काला दिन करार दिया है।
बाइडेन की जीत 3 नवंबर को चुनाव वाले दिन ही तय हो गई थी और फिर 14 नवंबर को इलेक्टोरल कॉलेज की वोटिंग के बाद इस पर एक और मुहर लग गई। 6 जनवरी का दिन बाइडेन की जीत की संवैधानिक पुष्टि का गवाह बनना था पर यह दिन दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का सबसे कलंकित दिन बनकर रह गया, जिसका कारण है डोनाल्ड ट्रंप की हार न मानने की जिद।
अमेरिकी चुनाव से पहले राष्ट्रपति ट्रंप रिपब्लिकन और बाइडेन डेमोक्रेट पार्टी के कैंडिडेट थे। चुनाव में ट्रंप की हार का मुख्य कारण कोरोना वायरस जैसी महामारी में उनकी देश को संभालने में रही नाकामी है। ट्रंप कोरोना महामारी को कभी मामूली फ्लू तो कभी चीनी वायरस बताते रहे। तीन लाख से ज्यादा अमेरिकी मारे गए, लाखों बेरोजगार हो गए और अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। ट्रंप श्वेतों को बरगला कर चुनाव जीतना चाहते थे क्योंकि अश्वेत भेदभाव का आरोप लगाकर उनसे पहले ही नाराज थे। 3 नवंबर को स्पष्ट हो गया था कि बाइडेन को 306 जबकि ट्रंप को 232 वोट मिले हैं यानी ट्रंप हार चुके हैं। चुनाव के पहले ही ट्रंप ने साफ कर दिया था कि वह हारे तो नतीजों को स्वीकार नहीं करेंगे। अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों ने उनकी इस बात को शायद गंभीरता से नहीं लिया, इसीलिए आज पूरे विश्व में अमेरिका की थूथू हो रही है। यदि सुरक्षा एजेंसियां सतर्क रहतीं तो संसद तक उपद्रवियों की यह भीड़ पहुंच ही न पाती।
अमेरिका में चुनाव के बाद नतीजों को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है किंतु वहां इनका निपटारा 6 जनवरी के पहले यानी संसद के संयुक्त सत्र के पहले हो जाना चाहिए और यही हुआ भी। फिर संसद बैठी उसने 4 मेंबर्स चुने, वो इलेक्टरल का नाम लेकर यह बता रहे थे कि उसने वोट ट्रंप को दिया है कि बाइडेन को। अब सवाल यह है कि फिर बवाल क्यों हुआ? तो इसका जवाब यह है कि वास्तव में ट्रंप चाहते ही नहीं थे कि इलेक्टरल्स के वोटों की गिनती हो और संसद बाइडेन के 20 जनवरी के शपथ ग्रहण समारोह को हरी झंडी दे। ट्रंप ने सोशल मीडिया पर भड़काऊ भाषण देकर समर्थकों को भड़काया और ये बवाल उसी का नतीजा है।

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