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राइटर्स ब्लॉक : अभिशाप या वरदान?

आशुतोष तिवारी
लेखन से जुड़े पहलुओं में सबसे अधिक चर्चित मुद्दा है - राइटर्स ब्लॉक। इसके बारे में ख़ूब बातें की जाती हैं। कई लोग इससे उबरने के लिए अलग-अलग तरह के उपाय बताते हैं। मोटे तौर पर, राइटर्स ब्लॉक एक ऐसा दौर है, जिसमें लेखक चाहते हुए भी कुछ नया नहीं लिख पाता है। ग़ौरतलब है कि लेखक की साहित्यिक योग्यता से इसका कोई संबंध नहीं है। यह ऐसे लेखकों के साथ भी होता है, जो लेखन में ढेर सारा काम करके अपना कौशल दुनिया के सामने साबित कर चुके हों। लियो तोल्स्तोय से लेकर अर्नेस्ट हेमिंग्वे तक और चार्ल्स बुकोस्की से लेकर वर्जीनिया वूल्फ़ तक, बड़े-बड़े हुनरमंदों ने महीनों तक शब्दों का अकाल देखा है और बाद में उनके खेत दुबारा लहलहाए हैं। इस अवरोध के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण है - प्रेरणा और आत्मविश्वास की कमी। जब लेखक को लगने लगे कि उसके पास दुनिया के सामने रखने के लिए कोई नई बात नहीं है, या वो सोचने लगे कि कुछ अर्थपूर्ण लिखना उसके बस का काम नहीं रहा, तो एक निराशा का दौर शुरू होने लगता है। अचानक शब्दों का बहाव मंद पड़ जाता है। कोशिश करके बड़ी मुश्किल से कोई वाक्य गढ़ा भी जाए, तो वह फीका और नीरस लगता है। समय के साथ शब्दों और विचारों की कमी का आभास घना होने लगता है और लेखक का अपनी क़ाबिलियत पर संदेह बढ़ता जाता है।
राइटर्स ब्लॉक की शुरुआत अक्सर ऐसे होती है कि लेखक के पास एक कच्चा खाका तैयार रहता है और वो तय नहीं कर पाता कि उसे अंतिम रूप कैसे दे। मिसाल के तौर पर, जॉर्ज ऑरवेल के एक उपन्यास का नायक लंदन में बिताए एक दिन के बारे में कविता लिखने की कोशिश करता है और नाकाम होता रहता है। ऐसा ही कोई प्लॉट लेखक के दिमाग़ में हो, वो उस पर सोचता रहे, और एक दिन उसे ध्यान आए कि वो बस सोचे जा रहा है और उसने कुछ भी लिखा नहीं, यहां से वो अनजाने में ख़ुद पर दबाव बनाने लगता है। ये दबाव धीरे-धीरे उस पर हावी होने लगता है और वो ख़ुद को एक अंधे कुएं में गिरा पाता है, कोई नज़ारा नहीं, कोई रोशनी नहीं। शब्दों से चित्र बनाने की कला लंबी साधना से मिलती है। इसे एक बार हासिल करके खो देने का डर लेखक को हताश कर देता है। दुनिया भर के साहित्यप्रेमी जिस तोल्स्तोय की क़समें उठा रहे हों, वो पूरे दिन काग़ज़-क़लम लिए मेज़ पर बैठा रहे और एक सुघड़ वाक्य न लिख सके, इससे पैदा होने वाली हताशा की हम-आप सिर्फ़ कल्पना कर सकते हैं। इस हताशा में वो कहां से लाए विचारों की ताज़गी और कैसे वो रचे जीवंत शब्दों का कोलाज!
ऑस्ट्रियाई-अमेरिकी मनोवैज्ञानिक एडमंड बर्गलर ने सबसे पहले 'राइटर्स ब्लॉक' नाम का इस्तेमाल किया था। उन्होंने यह तर्क दिया कि हमारा अचेतन मस्तिष्क हमारे सचेत उद्देश्यों के लिए रुकावट पैदा करने की कोशिश में लगा रहता है और 'सेल्फ़ कंस्ट्रक्टेड डिफ़ीट' से बहुत आनंदित होता है। यानी लेखन के संदर्भ में उनका कहना था कि कहीं-न-कहीं लेखक ख़ुद चाह रहा होता है कि उसके लिखने की योग्यता ख़त्म हो जाए। बर्गलर की व्याख्या 'साइकिक मासोकिजम' यानी 'मानसिक स्वपीड़न' की अवधारणा पर केंद्रित थी, जिसकी मूल स्थापना यह है कि हर आदमी अपने आप को तबाह कर देने की चाहत रखता है और उसे इस चाहत की ख़बर भी नहीं होती है। इतना ही नहीं, आदमी के अचेतन अहंकार को इस बात से बल भी मिल रहा होता है कि उसका विनाश कोई और नहीं कर सकता, बल्कि वो ख़ुद कर रहा है। इन सभी तर्कों के बारे में बर्गलर ने अपनी किताब 'द राइटर एंड साइकोएनालिसिस' में विस्तार से लिखा है।
बर्गलर के कई समकालीन मनोवैज्ञानिकों और लेखकों ने कहा कि 'राइटर्स ब्लॉक' जैसी कोई चीज़ नहीं होती और ये अपनी नाकामी छिपाने का एक बहाना है। लेकिन बर्गलर ने बार-बार सुदृढ़ तर्कों और मान्य उदाहरणों के साथ यह साबित किया कि लिखने की योग्यता होने के बावजूद न लिख पाना एक वास्तविक समस्या है और उसके बहुत सीधे और स्पष्ट कारण हैं। ख़ैर, ये बहस तो आज तक चली ही आ रही है, लेकिन हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे साफ़ होता है कि 'राइटर्स ब्लॉक' में फंसने का मतलब लेखन कौशल का ख़त्म हो जाना ही नहीं होता और उसके पार जाकर फिर लिखने की लय जारी रखी जा सकती है।
बुकोस्की का कहना था - कुछ न लिखने से बेहतर है कि राइटर्स ब्लॉक के बारे में लिखो। काफ़्का के यहां भी ऐसी कोशिश दिखती है। जैसे कि उसकी दैनन्दिनी में दर्ज ये बयान - "समय कैसे उड़ जाता है! दस रोज़ और बीत गए और कुछ हासिल नहीं हुआ। बात बनती ही नहीं है। कभी-कभार एक कामयाब पन्ना तैयार होता है, लेकिन मैं उसे जारी नहीं रख पाता, अगले दिन मैं निःशक्त हो जाता हूं।" हेमिंग्वे ने नए लेखकों को सलाह दी थी कि जब क़लम अच्छी रफ़्तार से चल रही हो और पता हो कि अब कहानी को किस ओर मोड़ना है, तभी बीच में काम बंद करके उठ जाओ और अगले दिन दुबारा लिखने बैठने तक उसके बारे में मत सोचो। साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले जॉन स्टेनबेक का मानना था कि ऐसी हालत में किसी एक व्यक्ति--चाहे वास्तविक हो या काल्पनिक--को संबोधित करते हुए अपने मन की बातें लिखने की कोशिश करनी चाहिए।
अमृतलाल नागर को कुछ न सूझता, तो आईने के सामने बैठकर अपने ही रंग-रूप का बखान लिखने लगते। "मेरे सिर पर बाल घने हैं। नाई जब काटता है, त‍ब तो बहुत से सफ़ेद बाल भी सामने आ जाते हैं, पर जाहिर तौर पर काली रैन में दिन के उजाले से छिपे रहते हैं। चांद में हल्‍का गंजापन भी घुन की तरह लग चुका है। लेकिन शुक्र है कि अभी कोई भांप नहीं पाता। कानों के पास दशरथ महाराज को चौंकाने वाले कुछ सफ़ेद बाल अवश्य ही पास बैठने वाले को दिखलाई पड़ सकते हैं। मांग बीच से दो फांकों में विभाजित करता हूं। पहले सीधे बाल काढ़ता था, फिर एक बार दिल की मजबूरी से दिमाग़ में बंटवारे का समय आया तो बीच से मांग काढ़ने लगा। मराठी भाषा में 'मांग' को 'भांग' कहते है, यानी भंग करना।" ...और इस तरह, थोड़ा घिसने के बाद क़लम फिर अपनी लय में चल पड़ती, बात से बातें निकलने लगतीं। अपना-अपना तरीक़ा, अपनी-अपनी मौज।
गांधीजी अपने अंतिम दिन तक एक प्रतिबद्ध लेखक बने रहे। वे हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी में नियमित रूप से लेख लिखते थे। पत्रों और डायरी की तो बात ही रहने दें, उनके 'यंग इंडिया' और 'हरिजन' के लेखों की ही एक विपुल श्रृंखला है। जब वे ट्रेन में यात्रा कर रहे होते थे, तब उनको काम करते देखकर उनके साथ के लोग अचंभित होते रहते थे। समय काटने के लिए कोई ताश खेल रहा होता, कोई मूंगफली खा रहा होता, कोई यारों के साथ गपशप कर रहा होता, लेकिन गांधीजी ट्रेन में एक-एक मिनट का इस्तेमाल लिखने के लिए करते। बीच में अल्पाहार के लिए बैठते तो किसी सहयोगी को पास बुलाकर बोलते जाते और वो कागज़ या टाइपराइटर पर लिखता जाता। 'हिन्द स्वराज' उन्होंने जहाज़ के सफ़र के दौरान लिखी थी। 9 दिनों तक उन्होंने लगातार लिखा, दायां हाथ थका तो बाएं हाथ से लिखा। अपने अतिव्यस्त सार्वजनिक जीवन में से उन्होंने टुकड़ों में समय निकालकर इतना कुछ लिखा, तभी गांधी वांग्मय जैसी अनमोल संपदा तैयार हो सकी। कुछ ऐसी लेखक की निष्ठा हो, इस तरह अपने दायित्व का बोध हो, तभी वो अपने अनमनेपन और सांसारिक रुकावटों से परे जाकर वो सब रच सकेगा, जिसका कि वह मनोरथ बांधता है।
और वैसे भी, ये कौन कह रहा है कि लेखन का रास्ता आसान होगा! ये तो है ही निराशा और हताशा का समंदर, लेकिन क़ज़लबाश ने कहा तो है - इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा। राइनर मारिया रिल्के द्वारा फ्रांत्स कापुस को लिखे गए पत्रों का संकलन 'लेटर्स टु अ यंग पोएट' के नाम से प्रकाशित हुआ, तो उसकी भूमिका में केंट नरबर्न ने रिल्के के मर्म को विस्तार देते हुए लिखा था, "हम सभी कला के साधकों को पता होता है कि यह अकेलेपन का जीवन हो सकता है। हम अक्सर स्वयं को एकांत से भरे सपनों का जीवन जीते हुए, दूसरों से कटे हुए और एक ऐसा नज़रिया लेकर चलते हुए देखते हैं, जिसकी क़द्र कोई और करता हुआ नहीं दिखता। कुछ अवसरों पर यह हमें अभिभूत कर सकता है। फिर हम बोध के उस स्वर के लिए व्याकुल होते हैं, जो हमारे एकांतपूर्ण जीवन तक पहुंचे और हमें ढाढ़स बंधाए कि जो रास्ता हमने चुना, वह मूल्यवान है और इससे मिलने वाला इनाम पाने के लिए इसके साथ आने वाला अकेलापन सहा जा सकता है।" 
कुल बातों का आशय यही है कि 'राइटर्स ब्लॉक' एक वास्तविक और डरावनी स्थिति है, लेकिन उसके पार पहुंचना भी पूरी तरह लेखक के हाथ में ही है। ये उसी का फ़ैसला होगा कि वो इससे तंग आकर हथियार डाल देता है या फिर शब्दप्रवाह शुरू होने तक अपने आपको झकझोरकर जगाता रहता है। जो ठहर गया, समझो कि उसका चलने का इरादा ही नहीं था। जब तक राह सुगम थी, उसने थोड़ी सैर-टहल कर ली। उसकी परीक्षा तो तब होगी, जब सामने एक खड़ी ऊंची दीवार पड़ जाए। अब या तो उसे गिराना होगा या फिर पीछे लौटकर नया रास्ता तलाशना होगा। तीसरा विकल्प यही है कि आगे जाने का विचार त्याग दिया जाए और ख़ुद को ये दिलासा दे दिया जाए कि ग़लती अपनी नहीं, बल्कि रास्ते की है। जिन्हें चलना है, वो भले रुकावट के कारण चल न पाएं, लेकिन रुकने का इरादा तो नहीं रखते। आप कब तक लिख सकेंगे, इसका जवाब इस सवाल में छिपा हुआ है कि आप लिखते क्यों हैं। अगर लेखन एक साधन है कहीं पहुंचने का, तो आप केवल अनुकूल परिस्थितियों में लिख पाएंगे। लेकिन अगर लेखन ही साध्य है, वही अंतिम उद्देश्य है, तो सारी बाधाओं को आख़िरकार मिट ही जाना है। जिसने महसूस कर लिया कि तपश्चर्या ही वरदान है, उसे तो ईश्वर भी वरदान से वंचित नहीं कर सकता।

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