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घुटती हुई सांसे

डाॅ. रमेशचंद्र
घुटती हुई सांसे कहीं तूफान न बन जाए
ये हरा भरा बाग कहीं वीरान न
बन जाए।
सहन करने की भी कोई हद हुआ करती है
जुल्म की जड़ कभी बरगद हुआ
करती है
बदलते दौर में कोई हैवान न
बन जाए।
कौन कहता है कि इंसान नहीं बदलता है
कौन कहता है कि ईमान नहीं
बदलता है
डर है इंसान कहीं बेईमान न
बन जाए।
रिश्ते नाते तो जमाने में मिल
ही जाते हैं
दुख की परछाई में ये हिल
ही जाते हैं
ऐसे में अपना ही अनजान न
बन जाए।
सूरज को ऊगते और ढलते
देखा है
पल में इंसान को रंग बदलते
देखा है
कोई अपनी मौत का सामान न
बन जाए।
बहुत दुख होता है जब अपना
बिछड़ जाता है
पछताना पड़ता है जब नसीब
बिगड़ जाता है
ये अपनी धरती कहीं शमशान न
बन जाए।

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