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प्रेम का रस्ता ढूँढ रहा हूँ 

✍️किशन तिवारी
खेलती है  कितने  ख़तरों से  बराबर  ज़िन्दगी 
जी नहीं पाती है फिर भी सर उठा कर ज़िन्दगी 
 
आप के सुख साधनों के वास्ते हम लोग सब
सींचते अपना पसीना ,या गँवा कर ज़िन्दगी 
 
कैसी आज़ादी मिली ये किस को आज़ादी मिली
आज भी  सोई  है  आधे  पेट  खा कर  ज़िन्दगी 
 
धर्म  मज़हब बाँटकर  अंधा बनाया  आप ने
कुर्सियाँ गढ़ती रही बस्ती जलाकर ज़िन्दगी 
 
कब तलक गाफ़िल रहेगी, अपने हक़ से बेख़बर 
उठ खड़ी होगी किसी दिन तिलमिला कर ज़िन्दगी 
 
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ठीक ठीक तुमने पहचाना है
ग़म से रिश्ता बहुत पुराना है
 
बस तुम से दो बातें करनी हैं
सपनों का इक महल बनाना है
 
बहुत ज़ोर से वह जो हँसता है
उसको अपना दर्द छुपाना है
 
पानी आँखों में दरिया सूखे
बंजर धरती चलते जाना है
 
छोड़ खिलौने रोटी ढूँढ रहा
बचपन एसा यहाँ बिताना है
 
जीवन और मरण में फ़र्क़ नहीं 
बस सासों का आना जाना है
 
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जाने मैं क्या ढूँढ रहा हूँ 
टूटा सपना ढूँढ रहा  हूँ 
 
भीड़ भरे बाज़ार में लेकिन
कोई  चेहरा  ढूँढ   रहा हूँ 
 
भटक रहा हूँ प्यास लिए मैं 
बस इक दरिया ढूँढ रहा हूँ 
 
आँखों में तस्वीर किसी की
दर दर भटका ढूँढ रहा हूँ 
 
बारूदों के ढेर में अब तक 
एक परिन्दा ढूँढ रहा हूँ
 
साथ चले आओ सब मेरे
प्रेम का रस्ता ढूँढ रहा हूँ 
 
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बंद   अब  ये  नुमाइश  करो
मुल्क से अब न साज़िश करो
 
नफ़रतें  तो  बहुत   हो चुकीं
अब मोहब्बत की बारिश करो
 
ज़ुल्म की भी तो हद हो गई
और मत आज़माइश करो
 
गाँव  बस्ती  अंधेरों के घर
रोशनी की सिफ़ारिश करो
 
अपने हक़ के लिए मर मिटो
मत किसी से गुज़ारिश करो
 
*भोपाल, म. प्र.
 

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