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कटता धीरे धीरे ढलती रात का वो प्रहर


✍️ब्रह्मानंद गर्ग सुजल

रह  रह  के  याद आता है रात  का वो प्रहर। 

आँखों से नींद उड़ा जाता है रात  का वो प्रहर।

सूनी आँखें फिर उठती हैं किसी के इंतज़ार में, 

आँखों को पानी दे जाता है रात का वो प्रहर।। 

 

फिर पानी से बन बुलबुला सजता है ख्वाब कोई। 

फिर दिल के रेगिस्तान में महकता है गुलाब कोई। 

बोझिल  पलकें  उठती हैं लिए  इक  नया  सवाल, 

पर नहीं मिल पाता किसी सवाल का जवाब कोई।। 

 

फिर कसक सी उठती है रह रह के याद आता है कोई। 

हसरतें जवां    हो उठती हैं  कहीं जैसे  बुलाता है कोई।

निगाहें उठ  जाती  हैं  उन राहों  की ओर  जो  मेरी थी, 

भटकी निगाहें लौट आती ख्वाब जैसे टूट जाता है कोई।। 

 

पल भर को लगती आँख ख्वाबों में रह जाती है वही बात।

ख्वाहिसें   संवरने  लगती  याद  आती  है वही  मुलाकात। 

पलक खुली  नहीं कि ख्वाब  बिखर जाएगा बूँद की तरह, 

लिए   अहसास  ये  गुजर   जाती है  उनींदी में सारी रात। 

 

जागता हूँ मैं हर पल सो जाता है सारा शहर। 

तन्हाईयाँ  घेर  लेती  हैं  काटता    हर  मंजर। 

तेरे आने की उम्मीद कभी तो होगी मुकम्मल, 

बस यू हीं कटता धीरे धीरे ढलती रात का वो प्रहर।। 

 

जैसलमेर, राजस्थान

 


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