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मुकरी विधा को समृद्ध करती कृति रसरंगिनी

भारतीय लोक साहित्य में आदिकाल से प्रश्नोत्तर शैली में काव्य सृजन की परंपरा अटूट है। नगरों की तुलना में कम शिक्षित और नासमझ समझे जानेवाले ग्रामीण मजदूर-किसानों ने काम की एकरसता और थकान को दूर करने के लिए मौसमी लोकगीत गाने के साथ-साथ एक दूसरे के साथ स्वस्थ्य छेड़-छाड़ कर ते हुए प्रश्नोत्तरी गायन के शैली विकसित की।  इस शैली को समय-समय पर दिग्गज साहित्यकारों ने भी अपनाया। कबीर और खुसरो इस क्षेत्र में सर्वाधिक पुराने कवि हैं जिनकी रचनाएँ प्राप्त हैं। इन दोनों की प्रश्नोत्तरी रचनाएँ अध्यात्म से जुडी हैं। कबीर की रचनाओं में गूढ़ता है तो खुसरों की रचनाओं में लोक रंजकता। कबीर की रचनाएँ साखी हैं तो खुसरो की मुकरी। साखी में सीख देने का भाव है तो मुकरी में कुछ कहना और उससे मुकरने का भाव निहित है।
कह मुकरियाँ सृजन के क्रम की नवीनतम कड़ी हैं तारकेश्वरी यादव 'सुधि' जिन्होंने १२० मुकरियों का संग्रह 'रसरंगिनी' शीर्षक से प्रकाशित किया है। इन मुकरियों में शिल्प की दृष्टि से चार पंक्तियाँ हैं जिनमें १६-१६ मात्राएँ हैं। प्रथम दो पंक्तियों में सामान तुकांत है जबकि शेष दो पंक्तियों में भिन्न समान तुकांत है। अंतिम पंक्ति का आठ मात्रिक प्रथम चरण प्रश्न का उत्तर देते हुए पूर्ण होता है जबकि आठ मात्रिक दूसरे चरण में इसे नकार कर वैकल्पिक उत्तर दिया जाता है। पूर्ववर्ती कवियों ने भिन्न छंदों, पंक्ति संख्या तथा यति का प्रयोग किया है किंतु सुधि जी ने आजकल प्रचलि सोलह मात्रिक चार चरणों में ही मुकरी कही है। इस संग्रह में ईश्वर, डॉक्टर, डाकिया, मनिहार, मालिन, चौकीदार, आँगन, सपना, पायल, दर्पण, काजल, सागर, बसंत, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, बेलन, मंच्छर,  आदि पारंपरिक विषयों के साथ-साथ गूगल, मोबाइल, डायरी, चाय, हलवा, टेलीविजन जैसी दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं पर भी मुकरियाँ कही गयीं हैं। 
 
तारकेश्वरी की मुकरियों की 'कहन' सहज बोध गम्य है। उनकी भाषा सरल है। वे क्लिष्ट शब्दों का उपयोग न कर मुकरी के रसानंद में पाठक को निमग्न होने देती हैं। 
 
जब भी बैठा थाम कलाई 
मैं मन ही मन में इतराई 
नहीं कर पाती मैं प्रतिकार 
क्या सखि साजन? नहीं, मनिहार 
 
प्रकृति के उपादान बादल सागर, अँधेरा, आदि उन्हें प्रिय हैं। 
 
रात गए वह घर में आता 
सुबह सदा ही जल्दी जाता 
दिन में जाने किधर बसेरा 
काया सखि साजन? नहीं अँधेरा 
 
किसी वास्तु के लक्षणों के मध्यान से उसका शब्दांकन करना मुकरी की विशेषता है। तारकेश्वरी इस कला में दक्ष हैं -
 
जैसी हूँ वैसी बतलाये 
सत्य बोलना उसे सुहाए 
मेरा मुझको करता अर्पण 
क्या सखि साजन? ना सखी दर्पण 
 
सप्ताह के छह दिन काम करने के बाद इतवार की सब को प्रतीक्षा रहती है। तारकेश्वरी की मुकरी भी अपवाद नहीं है -
 
जब वह आता देता खुशियाँ 
बात जोहती मेरी अँखियाँ 
फरमाइश का लगे अंबार 
क्या सखि साजन? नहीं इतवार 
 
सुगृहणी का काम छलनी के बिना नहीं चलता, 'सार सार को गहि रहे' जैसे गुण की धनी छलनी पर मुकरी में 'मनहरनी' शब्द का प्रयोग नवता लिए है-  
 
सार-सार वह मुझको देती 
अपशिष्टों को खुद रख लेती 
इसीलिये है वह मनहरनी 
क्या प्रिय सजनी? ना प्रिय छलनी 
 
सुबह उठते ही चाय के तलब सबको लगती है। 'चाय' पर मुकरी अच्छी बन पड़ी है -
 
जब भी होठों को छू जाए 
तन-मन की सब थकन मिटाए 
उसका कोई नहीं पर्याय 
क्या सखि साजन? ना सखि चाय 
 
टेलीविजन आजकल जीवन की अनिवार्यता बन गया है। तारकेश्वरी का मुकरी लोक भला कैसे इससे दूर रह सकता है? इसमें अंतिम पंक्ति मात्राधिक्य की शिकार हो गयी है। 
 
जब मैं चाहूँ तब वह बोले 
अगर रोक दूँ मुँह ना खोले 
अक्सर वह बहलाता है मन 
क्या सखि साजन ? ना सखि टेलीविजन 
 
बिखरते परिवार और घर-घर में उठी दीवार एक अप्रिय सत्य है। तारकेश्वरी मुकरी में इस स्थिति से आँखें चार करती हैं-
 
खंडित करती भाई चारा 
पल में कर दे वह बँटवारा 
बिखरा देती घर-परिवार 
क्या सखी साजन? नहीं दीवार 
 
मीरा पर मुकरी कहते समय तारकेश्वरी 'प्रेम दीवानी' विशेषण का प्रयोग करती हैं। 
 
वह तो पगली प्रेम दीवानी
समझाया पर बात न मानी 
उसे लुभाये ढोल मंजीरा 
क्या प्रिय सजनी? नाप्रिय मीरा 
 
मुकरी विधा को समृद्ध करने में तारकेश्वरी 'सुधि' का अवदान महत्वपूर्ण है। उन्हें बधाई। अपवाद स्वरूप मात्राधिक्य व लयभंग के बावजूद इन मुकरियों में पाठक को बाँधने की सामर्थ्य है।
 

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