✍️शशि पाठक
मैं नारी हूं
देदिपयमान दीपशिखा सी
मत समझना मुझे
अबला
स्वतंत्र आस्तित्व है मेरा ।
नहीं मोहताज हूं मैं
तुम्हारी स्वीकृति की ।
अपने में संपूर्ण हूं मैं
अजस्त्र प्रवाहित गंगा सी
जिसे झेल न पाई धरा भी
सहारा लेना पड़ा शिव का
शिव
जो मेरा ही अर्धांग है
उसी ने धारण किया मुझे
अपनी जटायों में
शांत किया मुझे
तो बही मैं धरा पर ।
शांत हूं मैं
अपनी इच्छा से ।
जिस दिन उश्रृंखिल हो गई
सह न पायोगे तुम
वेग मेरा ।
*जयपुर
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