✍️प्रेम बजाज
बंद पिंजरे में
फड़फड़ाते रहते हैं
मेरे पंख ,
निहारते रहते हैं
आसमां को
सूनी निगाहों से,
होकर के सोने के
पिंजरे में कैद
फड़फड़ाती रहती हूं,
दाना है , पानी है , हवा है ,
लेकिन
आज़ादी को तरसते
रहते हैं मेरे पंख ।
थी मैं बगिया की
उन्मुक्त चिड़िया ,
उड़ती फिरती डाल- डाल थी ,
आवारा, बेपरवाह,
मस्तमौला सी ,
सपनों की उड़ती
सदा उड़ान थी ।
किया कैद एक सैयाद ने ,
घुट - घुट कर जीने को
मजबूर किया ,
बस कैद हो कर रह गई
मैं मान और मर्यादा में ही ,
देखती हूं आसमान
पर उड़ते पंछियों को ,
रह जाती हूं
फड़फड़ा कर के मैं भी ।
लेकिन मन की उड़ान को
कैसे रोकूं ,
मन का पंछी उड़ता जाए ,
तन का पंछी उड़ने को आतुर ,
बंद पिंजरे में बैठा
पंख अपने फड़फड़ाए ।
पर अब मैंने भी ये ठाना है ,
नहीं और फड़फड़ाना है ,
तोड़ कर के पिंजरा
खुले आकाश में उड़ जाना है ,
सपनों को साकार बनाना है ,
हां अब
मुझे भी कुछ कर के दिखाना है ,
अपनी मंजिल को पाना है ।
*जगाधरी ( यमुनानगर)
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