✍️अंजली अरोड़ा
वह कहर जो बरसा था, न हमने जाना था
वो बीत गया हमारे, बाप दादा का जमाना था
आसमान जैसे टूटा था, वह कयामत थी
खत्म हो रही अंग्रेजों की अब हुकूमत थी
साथ रहे पड़ोसियों पर हैवानियत सवार थी
जिस तरफ देखो सिर्फ मज़हब की बात थी
स्वाह हुई थी सम्पत्ति और अथाह दौलत
बरसों कमाई इज्ज़त भी आज नहीं पास थी
निकाला था घरों से, एक जोड़ी में उनको
बची न कोई जागीर अब पास थी
बहू बेटियां भी की गई थी छलनी
तन पर उनके नहीं थी एक भी चुनरी
चढ़ाया था उन्हें हवस की वेदी पर
किया था नीलाम घर की ही ड्योढ़ी पर
सहा क्या क्या नहीं तब मां बेटियों ने
एक दो ने नहीं , दर्द सहा ये लाखों ने
बच्चियां पत्थर पर पटक दी जाती थी
दर्द चीत्कार से हाय, छाती फटी जाती थी
न था बचा किसी का कोई दीन ईमान
सबकी थी सिर्फ मज़हब से पहचान
इंसान था बन, सिर्फ हिंदू मुसलमान
आंखो में पानी किसी की न था बचा
हुआ कत्ल वो भी, जो कल तक था सगा
जो था हिंदू, चल दिया था हिंदूस्तान
जो रहा सरहद पार बना मुसलमान
बंटवारे में हुए इस तरह कत्लेआम
जाने इंसान कैसे बन गया था हैवान
उजड़ कर छोड़, अपना वतन आये थे
जुल्म कैसे अपनों ने, अपनों पर ढाये थे
दर्द की कहानी का न ,कहीं कोई छोर था
बंटवारे के नाम पर, बस लाशों का ढेर था
सबक, इस सब से हमने कुछ है सीखा नहीं
बातें आज भी है वहीं, जैसे ये दर्द चखा नहीं
आज भी हम इंसान नहीं हिंदू मुसलमान है
देखो कठपुतली नचा रहा सियासतदान है।
*दिल्ली
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