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ज़िंदगी और रेलगाड़ी



*संगीता गुप्ता









ज़िन्दगी बस

एक भागती हुई रेलगाड़ी

स्टेशनों की तरह ही

छूटते जाते कुछ अपने

भरकर आँखों में हरियाली 

हाथ हिलाहिलाकर पुकारते 

कुछ पहचाने से लगते

अज़नबी दृश्य

गंतव्य तक

पहुँचने की हड़बड़ाहट

पर कसक यह कैसी 

मन पर अंकित

न जाने यादो के

कैसे कैसे चिन्ह

रेलगाड़ी की तरह ही 

रोक तो नहीँ सकते

ज़िन्दगी की रफ्तार को

सफ़र में मिले साथी

कुछ घंटों के लिए ही तो थे

पर इस सत्य को

अपना नही पाते ज़िन्दगी में

ज़िंदगी और रेलगाड़ी

जीते है एक ही दर्शन को

हम फिर भी रह जाते है

अनाड़ी के अनाड़ी

*जयपुर (राजस्थान)

 


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