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प्रकृति से जुड़कर अपनाएं जीवनशैली



✍️श्रीराम माहेश्वरी

यह सच है कि पंच तत्वों से मिलकर हमारी प्रकृति बनी है। प्रकृति मनुष्य सहित समस्त जीव-जंतुओं तथा जैविक और अजैविक जीवो का पोषण करती है। आदिकाल में मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित थी, इसलिए वह  प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपनी सीमा में रहकर करता था, परंतु जैसे-जैसे वह शिक्षित हुआ, उसकी आवश्यकताएं बढ़ीं, वैसे-वैसे उसका लोभ लालच बढ़ता गया। नतीजतन, वह प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग करने लगा। उस पर अपना अधिकार समझने लगा।इससे दुनिया में अनेक पर्यावरणीय समस्याएं बढ़ी हैं ।
वेद और शास्त्रों में प्रकृति को मां तुल्य माना गया है । मानव शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है और प्रकृति भी।  ये  पांच तत्व हैं- आकाश, अग्नि, वायु, धरती और जल। इन तत्वों के संतुलन से ही मनुष्य का जीवन है। मानव सभ्यता का धीरे-धीरे विकास हुआ। यह विकास भौतिकवाद के मार्ग पर अग्रसर हुआ, जबकि प्रकृति से जुड़कर जीवनशैली अपनाकर उसे चलना था। इस तरह मनुष्य एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में रास्ता भटक गया है। पृथ्वी के तीन हिस्से में जल है और एक हिस्से में भूभाग । आज हम देख रहे हैं कि कुछ विकसित देश समुद्री रास्तों को अपना बता रहे हैं। वे समुद्री जल में सीमांकन कर रहे हैं। अन्य देशों की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं। दूसरे देशों पर हमले कर रहे हैं। 
दुनिया भर में हथियारों की होड़ बढ़ती जा रही है। शक्ति प्रदर्शन के लिए कई देश मिलकर युद्ध का अभ्यास कर रहे हैं।  नए-नए विस्फोटकों को आजमाया जा रहा है। अंतरिक्ष और आकाशीय मार्ग में मिसाइल और विमानों की गड़गड़ाहट से समूचा नभ गूंज रहा है । वायु मार्ग में ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। धरती तो पहले से ही प्रदूषण के कारण कराह रही है।  वनों को उजाड़ा जा रहा है । पहाड़ों को छलनी किया जा रहा है। अत्यधिक खनन और बड़े-बड़े बांधों से भूगर्भीय हलचलें बढ़ने लगी हैं। अनेक देशों में भूकंप, बाढ़, भूस्खलन जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं।
प्रकृति का संतुलन बिगड़ने से प्राकृतिक और मानवजनित आपदाएं आ रही हैं। जलवायु में हो रहे परिवर्तन हमें संकेत दे रहे हैं। हमें सावधान कर रहे हैं, परंतु यह दुखद पहलू है कि हम अपनी जीवनशैली और आदतें बदलने को तैयार नहीं है । लगातार हम पेड़ों को काटते जा रहे हैं। नदियों में गंदगी पहुंचा रहे हैं। मैदानों में कचरे के ढेर पहाड़ों की शक्ल ले रहे हैं । कृषि भूमि और गांव की भूमि कम हो रही है। वहां सड़कें बन रही हैं। बहुमंजिला इमारतें बन रही हैं । शहर की सीमाएं बढ़ रही हैं। 
नगरीय जीवनशैली गांव की लोक संस्कृति को नष्ट कर रही है। इस तरह विकास की परिभाषा बदलने से मनुष्य खुशहाली के बजाय बदहाली की ओर बढ़ रहा है। अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ने से अपराध और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। प्रकृति से जुड़कर जीवनशैली अपनाकर हम इन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। हमें विकास का ऐसा रास्ता अपनाना होगा, जिससे प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण हो।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरणविद हैं)

 


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