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मुक्तक



✍️अ कीर्ति वर्द्धन

ता उम्र माँगता रहा माफ़ी उन गुस्ताखियों की,

जो मैंने की ही नहीं और मुझ पर लगाती रही।

यह इन्तिहां थी तेरी चाहत की, गौर से देख,

सारे इल्जाम सहकर भी हमने उफ़ तक ना की।

 


बरसेगा जल बहुत गगन से, मेरा मन तो प्यासा है,

विरह वेदना तडफाती है, नयन दरस को प्यासा है।

रहा किनारे बैठ समन्दर, अथाह जल राशी देखी,

दो कतरा भी पी न सकूं, मन प्यासा का प्यासा है।

 


पत्थर को काट कर- तराश कर, बुत बना देता हूं मैं,

अपने हुनर से बहुत को भी, भगवान बना देता हूं मैं।

है मेरा शौक पत्थरों से खेलने का, पत्थरदिल शहर में,

मानवता बची रहे, आदमी को इन्सान बना देता हूं मैं।


 

*मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)

 


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