*पूजा झा
नित रोज नए दस्तक देकर
एक आह सी देती है,
कैसी मेरी मौन- वेदना!!
आस के लिबासों से लिपटी,
जुड़ी अतीत के धागों से
बिना गुथे ही जुड़ जाती है,
ये मेरी अतृप्त आत्मा
कैसी मेरी मौन-वेदना!
जगती हूँ तो पाती बिखरी,
निंद्राभंग होते ही जिसकी
टीस से व्याकुल हुई आत्मा
कैसी मेरी मौन-वेदना!
पर्वत-श्रृंखला सी जीवन काया,
जिसपे न कोई जीवन आया
सारी उम्मीदों को भूलकर
कहती दर्पण से यही अक्सर,
क्या की थी यही कामना?
कैसी मेरी मौन-वेदना!!
*जंदाहा,हाजीपुर,बिहार
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