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लॉक डाउन कोरोना का हल नहीं, सतर्कता ज़रूरी



✍️डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'


विश्वभर में कोरोना का हाहाकार है, त्राहि-त्राहि के इतर कुछ सुनाई नहीं दे रहा है, जनता भयग्रस्त है। विश्वबंदी भी करके देख ली, देशबन्दी से भी दो चार हो चुके, लगभग चार माह से अधिक समय भारतवासी घरों में बैठकर बिता चुके किन्तु हालात जस के तस हैं। न कोरोना संक्रमितों की संख्या में कमी आई है, न ही भयावहता में। बीते सौ घंटे में तो सम्पूर्ण विश्व में लगभग दस लाख से अधिक मरीज़ कोरोना से संक्रमित दर्ज हुए हैं। और इसी के मद्देनज़र कई प्रशासकीय व्यवस्था लॉक डाउन जैसी व्यवस्था पुनः लागू करने की कवायदों में जुटी हुई हैं। जबकि लॉक डाउन की असल हक़ीक़त तो यह है कि इसने न केवल ग़रीब, मध्यमवर्गीय जनता की कमर तोड़ कर रख दी बल्कि अर्थव्यवस्था को भी तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
भारत जैसे वृहद जनसंख्या आधारित राष्ट्र में आय के सुनियोजित स्त्रोतों में लॉक डाउन के चलते अत्यधिक कमी आई है, रोज़ कमाने-खाने वाली पूरी जनजातीय व्यवस्था चरमरा गई है। लॉक डाउन के दौरान समाजसेवी संगठनों और सरकारों द्वारा जिस तरह से राशन भोजन की आपूर्ति करवाई गई, वो भी स्वाभिमानी मध्यमवर्गीय तक तो न के बराबर पहुँची, और वह भी कारगार समाधान नहीं बन पाए। आज जब अनलॉक के माध्यम से रोज़गार-व्यवसाय थोड़े संभलते नज़र आने लगे तो ऐसे में फिर से लॉक डाउन कोई बड़ा हल नहीं है।
लॉक डाउन के दौरान भी कोरोना संक्रमित मरीज़ मिलना कम नहीं हुए, बल्कि उनकी संख्या बढ़ी ही है जबकि लॉक डाउन के बाद उन आँकड़ों की तुलना में कम ही मरीज़ मिले हैं। कोरोना से जागरुकता और जनता को अपनी सुरक्षा की चिंता स्वयं रखना ही सर्वोपरि उपचार है अन्यथा लॉक डाउन तो दोहरी मार का कारण बनेगा, एक ओर आर्थिक क्षति भी होगी और दूसरी ओर स्वास्थ्यगत क्षति भी मुँह फैलाए खड़ी हुई है।
शासकीय व्यवस्थाओं की तो विवशता भी है कि लॉक डाउन लगाकर कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग, सर्वे आदि करके कोरोना से निजात दिलाएँ किन्तु लॉक डाउन का ज़मीनी स्तर पर दुष्परिणाम अत्यधिक है। लॉक डाउन से अवसादग्रस्त होने वाले मरीज़ों की संख्या में भी इज़ाफ़ा हुआ है। इस अवसाद के कारण आत्महत्या, घरेलू अपराध आदि समस्याओं में बेहताशा वृद्धि दर्ज की गई है। यहाँ तक कि देश की सबसे बड़ा हिन्दी सेवी संस्थान मातृभाषा उन्नयन संस्थान ने तो 'एक युद्ध अवसाद के विरुद्ध' अभियान संचालित कर लोगों को अवसाद से बाहर निकालने में बड़ी भूमिका अदा की है। लगभग 1000 से ज़्यादा स्वयंसेवियों के माध्यम से जनजागृति कार्यक्रम संचालित किए, ऑनलाइन कवि सम्मेलन आदि के माध्यम से जनता को अवसाद से बाहर निकालने का कार्य भी किया है।
आज सम्पूर्ण विश्व की स्थिति कोरोना के कारण भयाक्रांत है, सहमी हुई शासकीय व्यवस्था लॉक डाउन को समाधान बताकर जनता को घरों में बैठने के लिए विवश तो कर सकती है किन्तु इससे राष्ट्र पिछड़ जाएगा। 
लॉक डाउन के हल के रूप में जनजागृति कार्यक्रमों में अभिवृद्धि करनी चाहिए। आम जनता को भी कोरोना को लेकर की जा रही लापरवाहियों से बचना चाहिए। जब विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारत के स्वास्थ्य महकमे ने जिन गाइडलाइन को तैयार किया है, जिसमें मुँह पर मास्क लगाना, लगातार हाथ धोना, सब्ज़ियों आदि को ख़रीदने के बाद धोकर उपयोग करना, पैकिंग वाले समान को सेनेटाइज़ करके उपयोग में लेना, नियत शारीरिक दूरी का पालन करना, अनावश्यक यात्रा, घूमने इत्यादि अनुशासनों का कड़ाई से पालन होना चाहिए। जनता स्वयं ही अपनी भाग्य विधाता है। जनता पर अनावश्यक चालानी कार्यवाही भी आर्थिक रूप से पीड़ादायक होगी, किन्तु जनजागृति कार्यक्रमों आदि के माध्यम से जनता को जागरुक किया जाना चाहिए। जिन नियमों को लॉक डाउन के दौरान पालन कर रहे थे, उन्हें यथावत पालन करना अनिवार्य हो, ताकि कोरोना संक्रमण से बचाव हो सके।
लॉक डाउन जैसी व्यवस्था तो जनता के लिए ही घातक है, ऐसे दौर में जनता ख़ुद समझदारी से कार्य व्यवहार करे तो बेहतर है, अन्यथा हम कभी कोरोना मुक्ति में शत-प्रतिशत सफलता नहीं प्राप्त कर पाएँगे और लॉक डाउन के बोझ से आर्थिक रूप से भी बहुत कमज़ोर हो जाएँगे। कहते है न भारत स्वयं का भाग्य विधाता बने, लॉक डाउन की नौबत न आए और जनता ख़ुद अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए उचित प्रबंध करके आगे जीवन यापन करे।


*हिन्दीग्राम, इंदौर
(लेखक पत्रकार एवं हिंदी भाषा के प्रचारक हैं)


 


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