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जाग रे बंदर, कोरोना आया



✍️व्यग्र पाण्डे

कुछ रोग सृष्टि के आरंभ से ही पैदा हो गये थे । जिनका असर केवल बंदर प्रजाति के उन्नत संस्करण  पर ही सदैव दिखता रहा । रोग तो अनेक रहे पर आज केवल उस की चर्चा करते हैं जो आज के महा घातक कैंसर से भी अधिक खतरनाक रहा । जिसने ब्रह्मा जी के सृष्टि निर्माण का अर्थ ही बदल दिया । वह रोग था बंदरों की विकसित संतति का जिनका सदैव से विचार रहा कि वे ही ' ईश्वर की श्रेष्ठ कृति है ' ये संसार केवल और केवल उसके लिए ही बना है । बस फिर क्या था- बंदर के विचार का केंद्र बिंदु सिर्फ बंदर रह गया । जागते-सोते, उठते-बैठते उसे अपनी ही चिंता सताने लगी । 'भाड़ में जाये अन्य जीव' उसे किसी से क्या लेना-देना । हालाँकि आरंभ की कई सदियाँ उसने प्रकृति के सानिध्य में बिताई पर वो इसकी मजबूरी रही होगी या कहे तो रोग की शुरुआत में जैसे-जैसे समय निकलता गया रोग बढ़ता गया ।  रोगी को रोग में कुपथ्य भक्षण की प्रबल इच्छा होती है इसकी भी होने लगी । अब इसे जंगलों की आबो-हवा से दुर्गंध आने लगी और शनै-शनै जंगलों से विरक्ति के साथ, जंगलों का सफाया भी करने लगा । श्रेष्ठता के दंभ के कारण अब तो अन्य बंदरों से स्वयं को अलग समझने लगा । शहर-बस्ती में निवास के बाद तो वो जानवरों में अपनी जीभ का स्वाद ढूंढने लगा, आगे चल कर तो जानवरों की जान इसके मनोरंजन का साधन भी बन गई और इस प्रकार उस की श्रेष्ठता का ग्राफ बढ़ता ही चला गया । ये तो तब की बात है जब शिक्षा से लोगों का दूर तक वास्ता नहीं था वो नहीं जानते थे कि शिक्षा किस चिड़िया का नाम है या कुछ तथाकथित अधिक सभ्य बंदरों के पिंजरें में आबद्ध निरीह पक्षी की तरह थी शिक्षा । 

जमाना अवश्य बदल गया पर इसने अपने पूर्वजों की उछलना-कूदना और दांत दिखाकर डराने की मूल आदतें आज तक नहीं छोड़ी । हाँ एक अंतर जरूर आया इसके पूर्वजों के जो ढाई हाथ की दृश्य  पूँछ हुआ करती थी अब इसने उसे अपनी पूछ में परिवर्तित कर लिया है । ये पहले भी जंगल के कानून को नहीं मानता था ना ये आज स्वयं के बनाये कानून को मानता है । इस खोटे संस्कार के कारण अपने ही जाल में स्वयं फँसता चला गया । धरा के प्राकृतिक स्वरूप को समूल नष्ट करता रहा और खुश होता रहा । और अपनी कृत्रिम उपलब्धियों पर इतराता रहा और गिनाता रहा - बंदर, घमंड की प्रतीक  खड़ी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं , चिकनी-चिकनी सड़कें जिन पर जहरीले धुआं उगलते अनेकानेक चलते साधनों को । प्रकृति के पंच भूतों से निर्मित शरीर रूपी इस छठे भूत ने संपूर्ण पृथ्वी को अपने करतूतों से असुंलित कर दिया पर इसके अब भी समझ नहीं आ रही । इसे कौन समझाए ? आज के बंदर तो और भी ज्यादा गुरुघंटाल बन गये हैं । गुरू घंटाल से आशय वे लोग होते हैं जो ना स्वयं पर ना ही दूसरों पर गंभीर होते हैं, जो सोच लिया जो कर लिया, वो ही ठीक है उसका क्या असर होने वाला है उससे बेखबर, जो किसी भी संकेत को समझते नहीं । पर अब लगता है इसे समझाने के लिए इसके कुकर्मों की बोतल का जिंद 'कोरोना' बन प्रकट हुआ है । जिसने इसकी आन्तरिक और वाह्य सत्ता को हिला के रख दिया है ।

कोरोना ने आते ही सदियों से भ्रम की कंदराओं में बेहोश पड़े बंदर को इस प्रकार कहा- जाग रे बंदर कोरोना आया,  चेत रे बंदर कोरोना आया । जैसे कभी गोरखनाथ ने अपने गुरु मछिन्दर नाथ को, रूप के जाल से बाहर निकालने के लिए कही थी । "जाग मछिन्दर गोरख आया,  चेत मछिन्दर गोरख आया" । सुनकर शिष्य की बात गुरु को समझ आई और गुरु मछिन्दर सही रास्ते पर आ गये । लगता है अब बंदर को भी कोरोना आने की बात समझ आ जाये पर अभी तो ऐसा नहीं लग रहा ।

ये जरूर है जब से कोरोना आया है तब से बंदर अपनी सारी नई हेकड़ियां भूल गया । शादी, पार्टी, होटलें सब बीती बातें हो गयी । सब बेशर्माई भूल गया जो बिना हिचक सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम प्रदर्शन किया करता था ।  अब आपस में दूरी बना कर रखने लगा है । अस्वच्छता को आधुनिकता कहकर जिसने बड़े गर्व से अपना रखी थी अब दिन में बीस बार हाथ धोने भी लगा है ।  जो प्रकृति का जानी दुश्मन था अब उसे प्रकृति ही प्रकृति रात-दिन ख्यालों में आने लगी है । लगता है इस कोरोना से कृत्रिम सौन्दर्य छिन जायेगा जिसके पीछे बंदर लालायित बना रहता था । प्रकृति की रक्षा व उसके सौन्दर्य के उपभोग में ही सबका भला है ये अब इसको भी समझ आने लग गया है । पर कुछ दंभी बंदर अभी भी नहीं समझ पा रहे इसलिए कोरोना जाने का नाम नहीं ले रहा । बल्कि पुरजोर तरीके से कहने में लगा हुआ है - "चेत रे बंदर कोरोना आया ,जाग रे बंदर  कोरोना आया,, 

*गंगापुर सिटी, जिला :सवाई माधोपुर (राज.) 

 


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