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दीप जले थे 26 जुलाई 99 को



✍️मच्छिंद्र भिसे

कभी सोचा न था मैंने

एक दिन ऐसा भी आएगा,

आहत होगी माटी मेरी

नदियों में लहू बह जाएगा।

 

वे मनहूस दिन

लहू की खेल रहे थे होली

रणबाँकुरे भारत माँ के

सीने पर झेल रहे थे गोली

देखे मैंने छलनी होते कितने ही तन

बिखर पड़े थे न जाने कितने ही बदन।

 

पर सच कहूँ ...

हर सूरमा जी-जान से लड़ा था

दुश्मन भी देख इनका रूद्रतांडव

अंतस्थ लड़खड़ा था

बुलंद हौसले और शहीदी पर उनके

उन दिनों हिंदुस्थानी दिल सिहर उठा था।

 

ले शपथ मातृभूमि और शहीदों की  

सौ जाने लुटाने हर सूरमा निकले थे

वे भी क्या खूब लढ़े

नजरें मिला दुश्मनों से जा भिड़े थे

दो माह के इस युद्ध में

हिंदुस्थानी वीर जीत का तिरंगा गाड़े थे।

 

जीत की ख़ुशी में आहत सारा हिन्दुस्थान

26 जुलाई 99 को दिवाली मना रहा था

बहता घाटी का खून

तेल बनकर जगमगा रहा था

परिजन-स्नेहियों की आँखों से

पवित्र धारा बन बह रहा था।

 

दिन बितते गए खून के धब्बे धुल गए

पर मेरे मन के दाग और गर्द हो गए

कैसे भूल सकती हूँ मैं सूरमाओं को

जो रक्षा में उन दिनों गोद मेरी सो गए

आज जब घाटी में सैनिक को देखती हूँ

उन सूरमाओं की छवि को निहारती हूँ।

 

पर मन दहल उठता है

किसी और शहीदी को सूना करती हूँ  

मैं हूँ कारगिल की घाटी

सूरमाओं को शत-शत वंदन करती हूँ।

 

*सातारा (महाराष्ट्र)

 


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