*आयुष गुप्ता
ये हक़ीक़त हैं या दास्ताँ किसी ख्वाब की?
इश्क़ हैं मेरा या कहानी किसी किताब की?
उस शख़्स की सदा में वो जादू हैं, क्या कहूँ?
लगता हैं जहां में फैली हैं खुशबू गुलाब की।
मुमकिन हैं कि वो अपने दरीचे तक आई हो,
वक़्त हैं रात का, रोशनी हैं आफ़ताब की।
तुम्हारे दीदार को दिल की बेताबी तो देखोे,
जैसे लगी हो तलब शराबी को शराब की।
एक सवाल किया था उनसे चन्द बरस पहले,
अब भी मुंतज़िर हैं आँखे उनके जवाब की।
करना था मुझे तुमसे अपने गमों का हिसाब,
हुए जब रूबरू तो बात रह गयी हिसाब की।
ये कमबख़्त अना जो हैं तेरे मेरे दरमियां,
यहीं तो सबब हैं इश्क़ में हर अज़ाब की।
*उज्जैन
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